________________
३४८
जैन महाभारत
'नीम हकीम खतरे मे जान' । तुम ने तीर्थजारों की शिक्षा तो याद रक्खी पर उसका मर्म नही समझ "
F
श्री कृष्ण की बात से अर्जुन तिलमिला उठा। कहने लगाक्या मै कही भ्राति का शिकार हो गया हू ?" . "हा, ऐसा ही है।"
"कैसे ?"
"अर्जुन ! तुम भूलते हो। भगवान ने अहिंसा के सम्बन्ध में जो उपदेश दिया है वह इस.प्रकार है .-- , “सब्वे जीवा वि इच्छति, जोविउ न मरिज्निउ। - तम्हा पाणिवह घोर, निग्गथा वज्जयति ण ॥ .. - अर्थात्-सभी जीना चाहते हैं मरना कोई भी नही चाहता। इस लिए निर्ग्रन्थ मुनि महाभयावह प्राणिवध का सर्वथा त्याग करते हैं। - इसका अर्थ स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ (जैन) मुनि ही भगवान की इस आज्ञा का कि किसी जीव का बध न करो। पालन करते हैं। गृहस्थी से यह आशा नहीं की जा सकती । ग्रथो में साफ़ साफ़ माना गया है कि :
समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवाय विरई, जावज्जीय वाय दुक्कर ।।
जीवन पर्यन्त ससार के सभी प्राणियो पर, फिर भले ही बह । शत्रु हो अथवा मित्र, समभाव रखना तथा सभी प्रकार की हिंसो । का त्याग करना बड़ा ही दुष्कर है। - ता सव्व जीव हिंसा, परिचती अत्तकामेहि ॥