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जैन महाभारत
भगवान के उपदेश एक के बाद एक उसके मन मे उठने लगे। उसे ध्यान आया
निस्पृहः साधको नित्यं जागृति प्राणिनोऽखिलान् ।
आत्मवत्सर्व मालोच्य नहि वैरायते क्वचित् ।।
निम्पृह साधक संसार में सब प्राणियो को आत्मवत् समझ कर किसी भी प्राणी के साथ कभी भी वैर नहीं करता।
यह धर्म शिक्षा स्मरण होते ही अर्जुन को ऐसा लगा मानो उससे कोई बड़ा पाप हुआ हो । उसका मन उसे धिक्कारने लगा। धनुष बाण की पकड ढीली हो गई और खडा न रह सका बैठ गया। श्री कृष्ण ने यह दशा देखी तो उन के मन में एक विचित्र आशका उठी। उन्होने फिर वही प्रश्न उठाया 'पार्थ! तुम क्या सोच रहे हो? तुम तो रण भूमि मे आकर सदा शत्रुओ पर बिजली की भांति टूट पड़ने के आदा थे। तुम्हारे धनुप.की टकार से ही शश्रुओ . के दिल दहल जाते हैं। पर आज जव कि कौरव सेनामो का सामना हुआ और तुम ने इतनी विशाल सेना को देखा तो तुम्हारे चेहरे का रग क्यो उड़ गया? गाण्डीव तुम्हारे हाथो से क्यो छुट गया और रण भूमि मे आकर कायरो की भाति कसे बैठ गए ?"
अर्जुन ने कहा- "मैं कायर नहीं। श्री कृष्ण जी मैं पथभ्रष्ट हो गया था, इस रण भूमि में आकर मेरी आंखे खुल गई।"
अर्जुन के उत्तर से श्री कृष्ण को बडा आश्चर्य हुआ। पूछा"पथ भ्रष्ट कसे ? अांखें खुलने से तुम्हारा क्या तात्पर्य है ?"
"स्वामिन् ! श्राप देख रहे है कि सामने शत्रु रुप मे शस्त्र लिए कौन कौन बड़े हैं ?" अर्जुन ने कहा "कौरव और उनकी सेना "
"इन मे मेरे आदरणीय व पूजनीय गुरुदेव तथा पितामह भी
1.
" "हो. हैं तो हा क्या?"