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________________ कृष्णोपवेश ३४५ दान मिला है, मै उन के प्राण भला कैसे हर सकता हू ? वीर होकर कृतघ्न कैसे हो सकता हूं। उसी समय उसके मन में यह बात भी आई कि यदि में अपने पूजनीय लोगो से भी युद्ध करने से बच जाऊ तो भी मुझे व्यर्थ का रक्तपात तो करना ही होगा। यह जो असख्य वीर पुरुष खड़े है, जो जीवन यापन करने के लिए सेना मे भरती हुए है, जो अपने स्वजनो का पेट भरने के लिए दुर्योधन की सेना में सम्मिलित हो गए हैं, इन बेचारों ने मेरा क्या बिगाडा है। मेरे बाणो से हा, कितनी ही वहनो का सुहाग लुट जायेगा, कितने बालक अनाथ हो जायेगे, कितनी ही माताओ की गोद खाली हो जायेगी। मेरे द्वारा कितने ही निरपराधी बालको, बहनों और माताओ की अाशाए, कल्पनाए और सुखद स्वप्न धूल धूसरित हो जायेगे। इन के जीवन की ज्योतियां बुझ जायेगी और मेरे कारण रण भूमि मे रक्त और घरो में पासुग्रो की धाराए 'फूट पड़ेगी। में भी पृथ्वी के वीर रहित कर दिए जाने का दोषी हो जाऊगा। यह सोचकर अर्जुन का शरीर शिथिल हो गया । उस का मन शोक सन्तप्त हो गया। अर्जुन की यह दशा देखकर श्री कृष्ण समझ गए कि पार्थं युद्ध के प्रति उदासीन हो रहा है। पूछ बैठे-पार्थ | क्या सोच रहे हो?" ___अर्जुन ने श्री कृष्ण का प्रश्न सुना पर बोला कुछ नही। उस के मस्तिष्क मे जिन भाषित धर्म की शिक्षाए जागृत हो गई। वह साचने लगा कि हिंसा तो भयंकर पाप है। ऋषभ देव जी ने तो फरमाया है कि किसी प्राणी को दुख देना या उसका वध करना महापाप है। भगवान ने तो कहा है - समे जीवैपिणो जीवा न मत्यु कश्चिदहिते। इतिज्ञात्वा बुधा. सर्वे न कुर्युजवि हिंसनम् ।। (श्री मद् गौ० गी० ४६) सम्पूर्ण प्राणी जीना चाहते है। मरना कोई भी नहीं चाहता, लिए किसी भी बुद्धिमान को जीव हिंसा नही करनी चाहिए । जिन भापित धर्म की शिक्षानो का ध्यान आना था कि
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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