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जैन महाभागत
श्री कृष्ण ने अर्जुन को उत्साहित करने के लिए ही उक्त शब्द कहे थे । अर्जुन ने श्री कृष्ण की बात: तो सुनी पर उस को दृष्टि थी कौरवो की सेना की ओर। जिस-मे उस के गुरु, आदरणीय वृद्ध, परिवार के अन्य सदस्य, तथा कितने ही रिश्तेदार मौजूद थे। अर्जुन ने दोतों सेनाओ पर, दृष्टि पात किया । इस की जिधर दृष्टि गई:धर ही स्वनन दिखाई दिए.+ सेनाओं मे स्थित, ताऊ चाचों को, दादों परदादों, गुरुपो को, मामाओं को, भाईयो को, पुत्रों को, मित्रों को, - ससुरो और सुहृदों को भी देखा उसने देखा कि दोनो ओर उसका पूरा परिवार कौरव कुल ही खड़ा है। महाराज शान्तनु के वशज, दोनों ओर एक दूसरे के शत्रु रूप में, एक दूसरे का काल बनने के लिए खडे हैं। उस ने अनुभव किया कि करो? वीर रण बाकुरे अपने प्राणो का मोह त्याग कर हाथो में शस्त्र-अस्त्र लिए भयंकर संग्राम करने खडे है। अर्जुन के मन में उसी समय एक भाव उत्पन्न हुआ, वह था करुणा का भाव । भरत खण्ड के चुने हुए योद्धा इस युद्ध में पागए है। अभी ही कुछ देरी में युद्ध प्रारम्भ हो जायेगा और रक्त को नदिया वह जायेंगी सारी पृथ्द्री का गौरव रक्त रजित हो जाये गा ! यह वीर, जिनके भाल पर तेज विद्यमान है, यह विद्वान जिनकी संसार को आवश्यकता है ताकि मुझ जैसे कितने ही अन्य अर्जुन उत्पन्न हो सकें यह क्षत्रिय कुल गौरव, यह नरेश और यह सौम्य मूर्तियाँ, मभी तो इस रण भूमि में एक दूसरे के लिए यमदूत का काम करेगे और न जाने इस युद्ध के कारण इस धरती पर कौन जोवित रहे, कौन न रहे ?
। अर्जुन का मन काप उठा, यह सोच कर कि रण भूमि में उसके गुरु और भीष्म पितामह तक उपस्थित हैं; क्या 'मुझे अपने गुरुदेव पर ही वाण उठाना होगा? मैं तो सदा भीष्म पितामह के चरणो को पूजता रहा हूं, क्या उन पूजनीय भीष्म जी को मुझे ' ही अपने शन्त्रों से मार डालना होगा?-प्रोह क्या इन गुरुया और वृद्ध जनो को उनकी कृपाओं का यही बदला दे सकता हूं। नही नही यह पूर्णतया कृतघ्नता है। मैं जिनकी गोद मे पला है. जिनके प्रताप से मैं धनुर्धारी हुया हूं, जिनकी कृपा में मुझे विद्या