________________
जैन महाभारत
।
युधिष्ठिर भिख मंगे नहीं हैं जो दुर्योधन से याचना करते फिरें। - वे अपने राज्य के अधिकारी हैं, उनकी यही कृपा काफी है कि उन्होने अपने साम्राज्य के दो भाग सहन कर लिए। उनकी यही धर्मनिष्ठा तथा न्यायप्रियता पर्याप्त है कि वे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिए इतने कष्ट उठाते फिरे । तेरह वर्ष तक बनो को खाक छानना और सेवक बन कर दूसरो की चाकरी करना हसी खेल नहीं है । यदि पाण्डवों ने यह स्वीकार कर लिया तो इसका यह अर्थ नही होगया कि कौरव कुल कलकियों के सामने माथा रगडते फिरें । ठीक है एक ही वृक्ष की दो शाखाएं होती हैं एक फलो से लदी होती है और दूसरो पर फल आता ही नही एक ही कोख से जन्मे दो व्यक्ति भी इसी प्रकार दो भिन्न मनो वृति के होते हैं। अब आप श्री कृष्ण तथा बलराम को ही ले, आपस मे भाई भाई हैं, पर एक न्याय का पक्ष पाती है तो दूसरा अन्याय का । परन्तु हम लोग जो यहा इकट्ठे हुए है, दुर्योधन के अधर्म के पक्षपाती नही । हम धर्म राज को उनका अधिकार दिलाने पर विचार करने आये हैं, इस लिए हमारा धर्म है कि हम न्याय के पक्ष मे कोई भी पग उठाने से न घबराये । तलवार लेकर सामने श्राये शत्रु से लडना अधर्म नही है । अन्यायी को उसके अपराध का दण्ड देनाश्रधर्म नही है । और कपट से जुए मे हरा कर किसी की सम्पत्ति को हड़प जाने वाले की प्रशंसा करना धर्म नही है। मेरा विचार है कि अब बिलम्व करने से कोई लाभ नही होगा हमे तुरन्त रणभेरी बजाने को तैयार होना चाहिए और धृतराष्ट्र के बेटो को उन के अन्याय का मजा चखा देना चाहिए ।"
३७६
सात्यकि की दृढता पूर्ण और जोर दार बानो से राजाद्रुपद बड़े प्रसन्न हुए वे अपने ग्रामन से उठे और बोले
" मात्यकि ने जो कहा वह बिल्कुल ठीक है मैं उस का समर्थन करता हू । जिम व्यक्ति की आखो पर लोभ की पट्टी बाधी जाती है, वह न्याय तथा धर्म नीति की बातें पहचान हा नही सकता । दुर्योधन को ग्राधा राज्य मिला, वह उस से ही मन्तुष्ट न हुग्रा, उस ने पडयन्त्र करके पाण्डवों का समस्त राज्य छीन लिया । ग्रव वह किसी भी प्रकार मीठो मोठी वातो से मानने वाला नही ।
5