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पगमर्ग
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लातो के भूत बातो से नहीं माना करते , दुर्योधन से महाराज युधिष्ठिर को उनका अधिकार दिलाने के लिए युद्ध करना ही होगा। पाण्डवो और कौरवो का फैसला रण भूमि मे ही होगा। फिर भी मेरे कहने का यह तात्पर्य कदापि नही है कि सन्धि बार्ता चलाई ही न जाय। हमे पहले अपने दूत शल्य, धृष्ट केतु, जयत्सेन, केकय, आदि मित्र राजानो के पास भेज देने चाहिए; ताकि वे युद्ध की तैयारी करने लगे और दूसरी ओर सधि वार्ता के लिए निपुण विद्वान दूत भेजना चाहिए। जो हर प्रकार से दुर्योधन को समझाये
और उसे सन्धि के लिए तैयार करे। यदि दुर्योधन फिर भी सन्धि के लिए तैयार न हो फिर रण के लिए ललकारना चाहिए। आप चाहें तो मेरे दरबार मे रहने वाले एक विद्वान शास्त्रज्ञ, नीतिवान राजा पुरोहित को दूत बना कर भेजदै। आप जो कहेगे उसी के अनुसार वे कार्य करेगे। इस प्रकार जिस तरह भी हो हमे महाराज युधिष्ठिर को उनका राज्य दिलाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । मेरी यही सम्मति है।"
___ राजा द्रुपद की बात समाप्त होने पर श्री कृष्ण उठे और कहने लगे:-- - "सज्जनो। पांचाल राज ने जो सलाह दी है वही ठीक है। - वह राज नीति के भो अनुकूल है, उसी पर चलना चाहिए। ठीक = है दुर्योधन की प्रकृति तथा स्वभाव को देखते हुए उस से यह आशा = करना कि वह सन्धि के लिए तैयार हो जायेगा और शाति पूर्वक
इस समस्या को सुलझाने का प्रयास करेगा, व्यर्थ है। हमे प्रत्येक मम्भव तथा धर्मानुकूल उपाय करने के लिए तैयार रहना चाहिए, तो भी नीति करती है कि हम सर्व प्रथम अपनी ओर से
शाति पूर्वक सन्धि वार्ता करने का प्रयास करे। महाराज युधिष्ठिर { की ओर से एक दून जाना ही चाहिए। कौन शक्ति इस के लिए ५ उपयुक्त है और उसे क्या बाते वहा जाकर कहनी चाहिए, किम ' प्रकार सन्धि बार्ता उमे चलानी चाहिए, इस सम्बन्ध मे राजा द्रपद
ही निर्णय करले. जिमे वे उपयुक्त समझे उमे हो वे स्बय समझा
बुझा कर भेज दे। दुर्योधन के दरबार मे जिन सुलझे हुए तथा । वयोवृद्ध लोगो के सामने हमारे दूत को अपनी बाते रग्वनी हैं, उन
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