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जैन महाभारत
रहे है कि चाहे युद्ध का कारण कुछ रहा हो और चाहे कोई भी अन्यायी या न्यायी हो पर दोनो ही पक्षो का नेतृत्व सुलझे हुए धर्म ध्यानी और कर्तव्य निष्ठ लोगो के हाथ में थे। ....
-- -तो युद्ध के नियमों को दोनों पक्षो के महारथियों ने प्रतिज्ञा पूर्वक स्वीकार किया।
दुर्योधन ने व्यूहरचना युक्त पान्डवो की सेना को देख कर और द्रोणाचार्य के पास जाकर प्रणाम करते हुए कहा-"माप के बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्ट द्युम्न द्वारा.व्यूहाकार -खडी-की-हुई पाण्ड पुत्रो की इस बडी भारी सेना को देखिये। इस सेना मे बड़े बड़े धनुषो वाले तथा युद्ध मे भीम और अर्जुन के समान- शूरवीर, सात्यकि, और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्ट केतु और चेकितान तथा बलवान काशीराज, पुरुजित. कुन्तो भोज और मनुष्यो में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एव द्रौपदो के पाचो पुत्र यह सभी महारथी हैं ।" -
द्रोणाचार्य ने दुर्योधन की बात सुन कर गम्भीरता पूर्वक कहा-"सामने खडी सेना की शक्ति को मैं समझता हूँ।- रण क्षेत्र मे आकर यह मत देखो कि कौन बडा योद्धा है, बल्कि यह सोचो कि कौन किस की टक्कर का है। दुर्योधन ! पोखली मे मिर देकर मूमलो से डरने की बात मत करों।"
. दुर्योधन गरज उठा-'प्राचार्य जी ! पाप के पाशीर्वाद से हमारी ओर इतनी शक्ति है कि पाण्डव सारे ससार को ला कर भी विजयी नही हो सकते। मुझे तो गवं है अपनी शक्ति पर । प्रोग्वली मे सिर तो पाडवो ने दिया है। ग्राप मुझे गलत न समझिए।"
उमो समय दुर्योधन के हृदय मे हर्ष, उल्लास और विचित्र उत्साह भर देने के लिए वृद्ध परम प्रतापी भोप्म ने उच्च स्वर से सिंह गर्जना कर के गब बजाया। और उसी समय शख नगारे, टाल मृदग तथा नरसिंगे ग्रादि बाजे एक साथ ही बज उठे। बदा भयकर शब्द हुमा वह् । '