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जैन महाभारत
नहीं होता। निरपराध नारी को अपने सामने मार खाते देवकर भी जिसकी भुजाए नही फरकी, जिसकी जिह्वा नहीं हिलो, उसे न्यायधीश कहलाने, और किसी देश का राज्य सचालन का क्या अधि. कार है। शास्त्र कहते है जो पीडितो की रक्षा नही कर सकता, न्याय का संरक्षण नहीं कर सकता जिसकी भुजाए निरश्रतो और निपराधियों की रक्षा मे नही उठ सकती, जो नारी को उस का उ. चित स्थान नही दिला सकता, व्यभिचारियों को दण्ड नहीं दे सकता, वह शासनारूढ रहने का अधिकारी नही है. ऐसे नरेश के होने से तो देश को बिना नरेश रहने मे हो भला है। मैं तो समझती थी कि वि. राट नरेश की व्यवस्था विराट है, हृदय भी विराट है, ज्ञान और क्षमता भी विराट ही होगी पर आज ज्ञात हुआ कि वह नाम मात्र का नरेश है। वरना शासन सता तो अन्यायियो के हाथ में है।"
कीचक क्रन्दन करती सौरन्ध्री को एक ठोकर मार कर चला गया और कहता गया- मूर्ख ! मेरे विरुद्ध कितना ही शोर मा. कितना ही विलाप कर, इन सब से कुछ होने वाला नहीं है। मैं जो चाहू वह कर सकता ह। भेड बकरियां सिंह का क्या खाकर सामना करेगी।"
बिलखती सौरन्ध्री विराट और उसके सभासदो को उलाहुना देती रही। कीचक के जाने के बाद सभासदो ने उस कलह के कारण पूछा। अवरुद्ध कण्ठ से सौरन्ध्रो ने कीचक के पापाचार का भण्डा फोड किया। विराट ने उसे सान्त्वना देने का प्रयास किया, सभासद मन ही मन कीचक को कोसने लगे। वि. भी विलखती सोरन्ध्री के वतात को सनकर दखित हए, उन्हमाण भी आया, पर बिल्कुल ऐसे ही जैसे किसी चिडिया को वाज पर अाता है। विराट क्रोध करने के अतिरिक्त और कर ही क्य सकते थे ।
• एक सभासद ने सौरन्ध्री (द्रौपदी) की व्यथा सुनकर कहा
"यह साध्वी जिस पुरुष की धर्म पत्नी है, उमे जीवन में महानता 'लाभ मिला है। मनुष्य जाति मे ऐमी सदाचारणी और मतान 'मिलना कठिन ही है। मैं तो इसे मानवी नहीं देवी माना