________________
“कीचक वध
दूसरा वोला- "जिसका धर्म सेनापति जैसे अत्यन्त बलवान उच्चपदासीन, वैभव शाली, सर्व शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के प्रलोभनो - और धमकियो के सामने भी नही डिगा, वह धन्य है, दासी रूप मे देख कर हमे आश्चर्य होता है यह तो किसी उच्च कुल की मन्तान
जब समस्त सभासद मुक्त कण्ठ से द्रौपदी की प्रशमा कर रहे थे, उसी समय युधिष्ठर ने द्रौपदी को लक्ष्य कर के कहा"सोरन्ध्री । अव यहा क्यो खडी हो, विलाप करते और मोती समान अश्रु विन्दु लुटाने से क्या लाभ ? तेरा पति और उसके भाई गन्धर्व अभी समय नही देखते । इसी लिए नही आ रहे । ममय को देख कर, परिस्थिति का सही मूल्याकन न करके, क्रोध और आवेश मे जो कार्य होता है वह दुखदायी ही होता है। अवसर पाकर वे तेरा प्रिय कार्य अवश्य ही करेगे। तू सन्तुष्ट रह । अपने पति पर और अपने धर्म पर विश्वास रख । महल मे रानी सुदेष्णा के पास जा और प्रतिज्ञा कर। न्याय की रक्षा करने के लिए महाराज विराट भी उत्सुक है तेरे पति की तो बात ही न पूछी क्रोध को पी जाना ही श्रेयस्कर है।"
मोरन्ध्री के वाल खले थे, कमर पर छिटक रहे देश उसके टूक टूक हुए हृदय का प्रतिविम्ब प्रतीत होते थे, नेत्र अश्रुपूर्ण थे और दहकते प्रगागे को भाति जल रहे थे। वह महाराज युधिष्ठिर जो अनुचर रूप मे थे की बात समझ गई और वहा मे चली गई।
राणी सुदेष्णा ने जो मोरन्ध्री की दशा देखी तो उनका मन संशक हो उठा । मन के भाव छुपाते हुए उस ने पूछा-"कल्याणी तुम्हागे यह क्या दशा हो गई है ? तुम तो मोमग्स लेने गई थी फलश कहा है? है है. यह तम्हारे नेग्रो मे अधविन्द यो विपर रहे हैं? क्या किमी ने कोई प्रनई कर डाला?
गनी पर सौरन्ध्रो का कोई सन्देह नहीं था, अपनी स्वामिन समझ फर उगनं सिस्क्रिया भर कर, मुबक्ने हुए, कहा-"महा