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कीचक वध
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का साहस न पड़ा कि उस अन्याय का विरोध करता। मत्सय नरेश को जिस ने अपनी मुट्ठी मे कर लिया था उस के विरुध बोलने का साहस भला कौन करता। उस समय राजसभा मे युधिष्ठिर और भीम सेन भी बैठे थे। अपनी आखो के सामने द्रौपदी का इस प्रकार अपमान होते देख कर दोनो भाई अमर्ष से भर गए। भीम तो उस दुष्टात्मा को मार डालने की इच्छा से क्रोध के मारे दात पीसने लगा। उसको पाखें लाल हो गई, भौहे टेडी हो गई और ललाट से पसीना बहने लगा। वह क्रोधावेश मे उठना हो चाहता था कि युधिष्ठिर ने अपना गुप्त रहस्य प्रगट हो जाने के भय से अपने पैर के अगूठे से उसका अगूठा दवा कर सकेन पूर्वक उसे रोक दिया।
चोट बाई हई सिंहनी की भाति सौग्न्ध्री रूपी द्रौपदी गर्जना कर उठी।-"मेरे पति समस्त विश्व को मार डालने की शक्ति रखते है, मैं उस परिवार को वह हू जो सारे जगत को अपने अस्त्रो गस्त्रों से भस्म कर सकता है। किन्तु वे धर्म के पास से बन्धे है मैं सम्मानित धर्म पत्नी है। तो भी आज एक सूत पुत्र ने मुझे लात मारी है। भरी सभा में मुझ पर अन्याय किया है , एक पतिव्रता का अपमान हुग्रा है. और सभी सभासद सब मौन वैठे है, किसी को उस अन्याय पर कुछ कहने का माहस नहीं हो रहा। क्या इसी विरते पर अप लोग न्याय रक्षक कहलाने का दम भरते है ? हाय ! जो शरणार्थियों को सहारा देने वाले हैं और इस जगत मे गुप्त रूप में विचरते रहते है वे मेरे पति महारथी व उनके योद्धा भ्राता
आज कहा है ? अत्यन्त बलवान तथा तेजस्वी होते हए भी वे अपनी प्रियतमा एव पतिव्रता पत्नी को एक सुत पुत्र के हाथो अपमान होते कस कायगे की भाति महन कर रहे हैं ? अाज पतिव्रता का अगमान हो रहा है, क्या इन भुजाओ और पैरो पर बव नहीं टूटेगा जिन मे मेरे शरीर का पर्व ह्या है ?"
अन्धन करती मौरन्ध्री उठी और निर्भय होकर विगट नरेग को ललकार कर बोली- मैंने तो सुना था कि मलय नरेगा न्याय प्रिय व निर्भय व्यक्ति है, पर प्राज उनको मात्रा के सामने यह दृष्पत्य हुना है जो किसी होन मे होन नरेश के दरबार में भी