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जैन महाभारत
सौरन्ध्री ने आवेश मे श्राकर कहा- मुझे रानी जी ने श्राज्ञा दी है कि अविलम्ब सोमरस ले आऊ । अतः उस देते है या चली जाऊ ।"
"कल्याणी ! रस तो कोई और दासी भी : लेजा सकती हैकीचक ने कामान्ध होकर कहा- तुम श्राई हो तो मेरी कामना को ' तृप्त व मुझे सन्तुष्ट करती जाओ। तुम मधुर कण्ठ वाली सौम्प मूर्ति हो, करूणा की प्रति मूर्ति हो, कठोर मत बनो । आओ जीवन का सच्चा श्रानन्द ले ।"
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"पापी | मुझे दासी रूप मे देख कर तेरा मस्तक फिर गया है । मैने कभी स्वप्न मे भी पर पुरुष की ओर कुदृष्टि से नही देखा, धर्म विरुद्ध आचरण नही किया । अपने धर्म व सतीत्व के प्रभाव से मैं तुझे तेरी मदान्धता का मजा चखा दूंगी।" - सोरन्ध्री ने क्रोध मे आकर कहा ।
अनुनय विनय और ग्रह से काम न बनता देख दुष्ट कीचक नेवल पूर्वक अपनी इच्छा पूर्ण करनी चाही और सोरन्घ्री रूपी द्रोपदी का हाथ पकड़ कर खीच लिया। सौरन्ध्री ने कलश वहीं पटक दिया और झटका मार कर उस से अपना हाथ छुडाकर राज सभा की ओर भागी । क्रोध से भरा और द्रौपदी से मात खाया हुआ कीचक चोट खाये नाग की भाति उसके पीछे दौडने लगा । सौरन्ध्री हरिणी की भाति भय विह्वल होकर विराट नरेश की दुहाई मचाती हुई राज सभा मे जा पहुंची। वह हाप व काप रही थी । उस ने अवरुध कण्ठ से सारी सभा को सुना कर विराट नरेश के सामने जाकर कहा-'दुहाई है महाराज की ! यह केसा अन्याय है । कैसा आप का शासन है। आपका सेनापति मेरे सतीत्व की नष्ट करने पर तुला है । वह वल पूर्वक मुझे भ्रष्ट कर डालना चाहता है । वचाइये | बचाइये | मेरे सतीत्व की रक्षा कीजिए । वह दुष्ट व्यभिचारी .
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इतने ही मे कोचक भी वहा गया । वह क्रोध में पागल हो गया था । मदाव ने आगे वढ कर मौरन्ध्री को ठोकर मार कर गिरा दिया और अपशब्द कहे । सारे सभा सद देखते रह गए। किशो