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दुर्योधन का अन्त
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अस्त्र का प्रयोग किया जिसके द्वारा मद्रराज शल्य घायल होकर घडाम से रथ पर से इस प्रकार गिरे जसे उत्सव-समाप्ति के बाद इन्द्र-ध्वजा ।
उनके गिरते ही बची खुशी कौरव-सेना मे कोलाहल मच गया । शल्य के मर जाने से कौरव-सेना नि सहाय सी हो गई । भय विह्वल होकर सभी सैनिक कांपने लगे। परन्तु रहे सहे धृतराष्ट्र पुत्रो ने साहस से काम लिया और सब मिलकर भीम सेन पर टूट पडे । बाणों की वर्षा प्रारम्भ करदी, पर उन्मत्त हाथी की भाँति भीम सेन वार वार सिंह नाद करता हुना उन पर झपटता रहा
और कुछ ही देरि मे उसने अपने बाणो से उन सभी को मोर गिराया । फिर तो कौरव सैनिको मे और भी भय छा गया । भीम सन तो आनन्द के मारे उछलता कूदता रण भूमि मे दहाड़ मारता घूमने लगा, मानो आज ही उसका जीवन सार्थक हुआ हो । तेरह वर्ष तक दबा रखो क्रोध की अग्नि उस दिन भडकी और दुर्योधन के अतिरिक्त शेष रहे सभी धृतराष्ट्र के पुत्रो को मार कर वह सन्तुष्ट सा प्रतीत होता था। वह हर्ष से फला न समाता था।
दूसरी ओर शकुनि और सहदेव का युद्ध हो रहा था । तलवार की पैनी धार के समान नोक वाला एक बाण शकुनि पर चलात हुए सहदेव ने कहा- 'मूख शकुनि । ले अपने पापो का दण्ड भुगत ही ले।"
वह वाण शकुनि के हृदय मे प्रविष्ट हो गया, जिससे वास्तव मे उसको अपने पापो का फल मिल ही गया , एक चीत्कार के साथ वह ढेर हो गया । युधिष्ठिर, भीम और सहदेव ने उस दिन इसी प्रकार अनेक दुर्योधन पक्षीय वोरो को मार गिराया।
कौरव-सेना के लगभग सारे वीर सदा के लिए सो गए। कुरु क्षेत्र मानव शवो से पटा पडा था ! चारो ओर कटे हुए हाथ पैर, घड और सिर बिखरे हुए थे । उनसे दुर्गन्ध उठने लगी थी । अकेला दुर्योधन रह गया था, जिसका हृदय टूट गया था और वह अपने प्राणो की रक्षा के लिए इधर उधर भटकता फिर रहा था । परन्तु उन शाति न मिलती थी।