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________________ ५८६ जैन महाभारत उसे किया और करते करते अपने प्राणो का उत्सर्ग भी कर दिया । इस प्रकार हमारे कितने ही महारथी मारे गए । अव युद्ध के इस भयानक दावानल को शात करना ही उचित है । आपको अपनी रक्षा के लिए अब सन्धि कर लेनी चाहिए । युद्ध बन्द ही आपको श्रेयस्कर होगा। यद्यपि दुर्योधन हताश हो चुका था तथापि कृपाचार्य के मुख से सन्धि का शब्द सुनकर वह आवेश मे आगया। कहने लगा"प्राचार्य | क्या आप चाहते है कि मैं अपने प्राण बचाने के लिए पाण्डवो से सन्धि कर लू ? नही, यह तो कायरता होगी ।. हमे वीरता से काम लेना होगा क्या मैं भीरु की भाति अपने प्राण बचालू जब कि मेरी खातिर मेरे बन्धु बाघवो व मित्रो ने अपने प्राणो का उत्सर्ग कर दिया हैं यदि मैं ऐसा करूगा तो ससार मुझ पर थूकेगा, लोग कहेगे कि दुर्योधन ने अपने वद्ध जनो, मित्रो तथा वन्धु बाधवी को तो मरवा डाला और जब वे सब मारे गए और अपने प्राणो का प्रश्न आया तो सन्धि करली । लोक निन्दा सहकर मैं कौन सा सुख भोगने को जीता रहू ? जब मेरे अपने सभी मित्र व बन्धु मारे जा चुके तो सन्धि करके कौन सा सुख भोग सकूगा? अब तो जो भी हो, हमे लडते ही रहना है । क्या तो अन्त मे हम विजयी होगे, अन्यथा अपने प्राण देकर अपने वन्धु बान्धवो के पास पहुच जायेगे।" सभी कौरव वीरो ने दुर्योधन की इन बातो की सराहना की। सभी ने उसका समर्थन किया और सब ने युद्ध जारी रखना ही उचित ठहराया। इस पर सब की सम्मति से मद्र राज शल्य को सेनापति बनाया गया । शल्य बडा ही पराक्रमो, वीर और शक्तिमान था। उसकी वीरता अन्य मृत कौरव सेनापतियो से किसी भाति कम न थी। शल्य के सेनापतित्य मे आगे युद्ध प्रारम्भ हुआ। पाण्डवो की सेना के सचालन का कार्य स्वय युधिष्ठिर ने सम्भाला युद्ध प्रारम्भ हाते ही महाराज युधिष्ठिर ने स्वय हा शल्य पर आक्रमण किया । जो शाति को मूर्ति से प्रतीत होते थे अव क्रोध की प्रति मूर्ति से बनकर बडे प्रचण्ड वेग से शल्य पर टूट पड़े । उनका भीषण-स्वरूप बडा ही पाश्चर्य जनक था। देर तक दोनो मे द्वन्द्व युद्ध होता रहा। आखिर युधिष्ठिर ने शल्य पर एक शक्ति
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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