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जैन महाभारत
आपके कार्य से अधर्म तथा अन्याय का पक्ष कमजोर होगा ।"
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श्री कृष्ण ने समझाते हुए कहा ।
"क्या आप इस कार्य की किसी दूसरे के द्वारा नहीं करा सकते ? कर्ण यह थोड़े ही देखता है कि याचक छोटा है बडा । कोई साधारण व्यक्ति भी यदि उक्त याचना करेगा, तो उसे निराश वह नही लोटाएगा ।" - इन्द्र ने कहा
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"वात इतनी सी ही होती तो आपको कष्ट नहीं दिया जाता - श्री कृष्ण ने कहा - सवाल तो एक और भी गम्भीर हैं, वह यह कि कर्ण की शुभ प्रकृति के कारण आपका एक देवता, जिसने उसे कवच व कुण्डल दिये थे, उसको रक्षा मे । रहता है । यदि कोई साधारण व्यक्ति जायेगा, तो कदाचित वह देवता विघ्न उत्पन्न कर देगा और हम सफल नहीं हो सकेंगे । इसीलिए ग्रापको स्मरण किया है।"
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इस प्रकार श्री कृष्ण ने इन्द्र को वाध्य कर दिया कि वही याचक बन कर जाये । वासुदेव होने के कारण इन्द्र उनकी श्राज्ञा का पालन करने को विवश था। वह वहां से याचक का वेष धारण करके चल पड़ा ।
उधर उस देवता को भी इस बात का पता चल गया कि इन्द्र याचक बन कर कर्ण से कवच तथा कुण्डल मांगने जा रहा है। उसने कहा :--
आग बन कर तू चला है मैं हवा हो जाऊगा । रोग बन कर तू चला है में दवा हो जाऊगा ।
और वह इन्द्र के पहुंचने से पूर्व ही कर्ण के पास पहुंच गया और जाकर कहा--"सावधान, कर्ण ! सावधान ! "
"क्यों क्या बात है ?" विस्मित होकर कर्ण ने पूछा । "अभी ही एक याचक श्रायेगा- वह देवता बोला- वह प्राप से देवी कवच कुण्डल मागेगा, आप कही उसे कवच कुण्डल मत दे बठना ।"
कर्ण ने कहा- "यह भला कैसे सम्भव है, कि कोई याचक श्राये तथा मुझ से किसी वस्तु की याचना करें, और में उसे इकार कर दूं । यह तो मेरे स्वभाव के ही प्रतिकूल है । नहीं, मैं उसे निराण नही कर सकता ।"