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जन-महाभारत
__ अर्जुन ने उसके पतले पतले हाथो को देखा, सच मुच काले काले दाग पड़ गए थे। उन हाथो को अपने मुह से लगा कर वे रो पडे। नेत्रो से सावन भाद्रो की झडी लग गई। क्लेश से पीडित हो कर अर्जुन कहने लगे-'पांचाली! मेरे गाण्डीव को धिक्कार है, तुम्हारे कोले पड़ गए हाथो को देख कर मुझे प्रात्म ग्लानि हो रही है। क्या करू जो में आता है कि ऐश्वर्य के मद उन्मत्त कामान्ध कीचक का इसी क्षण वध कर डालू, इस कायर नरेश को यमलोक पहुचा दूं पर क्या करू भ्राता जी की प्रतिज्ञा मेरे रास्ते में रोड़ा बन गई है। प्रिये । जहाँ मेरे पास शक्ति है, उत्साह है, विद्या है वही मुझे बुद्धि भी मिलो है। भ्राता जी ने धर्म और बुद्धि से काम न लिया तो उन्हे और उन के आश्रित हम सवो को आज का दिन देखने को मिला यदि वही भूल अर्थात बुद्धि से काम न लेने की भूल में भी करू तो क्या पता हम पर और क्या विपदाए पडे। तुम बुद्धि मती हो। क्रोध का दमन करो। पूर्व काल में भी कितनी ही पतिव्रता नारियो ने पतियो के साथ दुख भोगे हैं। सती सीता का उदाहरण तुम्हारे सन्मुख है। अतएव कल्याणी ! तुम कुछ दिनो के लिए सन्तोष करो। वह दिन शीघ्र ही आयेगा जब तुम्हारे कष्टो का निवारण करने के लिए मैं स्वतन्त्र हो जाऊगा।"
सौरन्ध्री रूपी द्रौपदी को इसी प्रकार समझा बुझा कर अर्जुन ने शांत किया। पर अलग होते ही पुन कीचक द्वारा.किया गया अपमान उसके हृदय को कचोटने लगा। उसे रह रह कर अपमान का तुरन्त वदला लेने की इच्छा सताती। तब उसका ध्यान भीम सेन की ओर गया और उस के हृदय ने कहा.-"पाचाली! ऐसे समय भीम सेन; केवल भीम सेन ही तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए तैयार हो सकता है, बदला लेना है तो उसी के पास चल।"-ग्रीर उस ने निश्चय कर लिया कि वह भीमसेन से एकान्त मे मिलेगी और अपनी व्यथा सुना कर इस के निवारण का उपाय करने को कहेगी। वह अवश्य ही ऐसे प्राडे समय पर सब कुछ कर डालने को तैयार हो जायेगा। उसकी भुजायो में गक्ति है, उस के रक्त मे गर्मी है, उम के मन में चंचलता है। उत्साह कोष और शत्रु पर