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कीचक वध
अाज उसी सहदेव को देखती ह कि गीग्रो के पीछे डण्डा लेकर प्रातः से सायकाल तक घूमता है और रात्रि को कम्बल बिछा कर सो जाता है। जो रूखा सूखा मिलता है उसी से उदर पूर्ति कर लेता है। यह सब देख देख कर दुखी होती हू, हृदय का रक्त पीती हू, पासू मन ही मन पी जाती हू, बोझल मन लिए जीती है। यह कैसी समय की विडम्बना है कि सुन्दर रूप, अस्त्र विद्या और मेधा शक्ति इन तीनो गुणो से सम्पन्न है वह प्रिय नकुल बेचारा आज विराट जैसे नरेश की अश्व शाला का सेवक है। मनुष्यो की सेवा न कर के उसे घोडी की सेवा मे लगा देखती हूँ फिर क्या मेरा हृदय विदीर्ण नहीं होता? न जाने कैसे जी रही हू।" पूर्व जन्म के दुष्कर्मों का ही फल है।
'देखा, शास्त्रो के प्रति कूल कार्य करने का परिणाम। महाराजाधिराज युधिष्ठिर को यदि जूए का दुर्व्यसन न होता तो सारे परिवार की यह अधो गति क्यो होती? मेधावी पाण्डु की वहू, पाचाल देश की राज कुमारी, आज किस दशा मे है, सुनने वाले भी रो उठेगे। मेरे इस क्लेश से पाण्डवों और पांचाल राज्य का भी अपमान हो रहा है। आप के जीवित होते मुझे यह कप्ट भोगर्ने पडे, धिक्कार है ऐसे जीवन को।"
कहते कहते सौरन्धी (द्रौपदी) क्रोध से भर गई, पर अपने पर नियंत्रण रखते हए वह फिर वोली-“एक दिन समुद्र के पास तक की धरती जिसके आधीन थी ग्राज वही द्रौपदी सुदेष्णा के आधीन हो कर सदा भयभीत रहती है। यही नहीं, कुन्ती नन्दन! पहले मैं किसी के लिए. स्वय अपने लिए भी उबटन नही
पोसती थी परन्तु आज राजा विराट के लिए चन्दन घिसना पड़ता . है रानी के लिए उबटन पीसना होता है। देखो ! मेरे हाथो मे
घट्ट पड़ गए हैं। क्या ऐसे ही थे पहले मेरे हाथ ।
कहते हए.द्रोपदी ने अपने हाथ अर्जुन के सामने फैला दिए भार सिसकती हुई बोली"--न जाने मने क्या ऐसा अपराध किया जिसका फल मुझे उतना भय कर भोगना पड़ रहा है।"