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जैन महाभारत
दूसरा अपमान था. वह भो मैं ने सहन किया और अब यहा के राजा विराट के सामने भरी सभा मे मै अपमानित हुई। कीचक ने भरी सभा में मुझे ठोकर मारी और महाराज युधिष्ठिर तथा भीम सेन वैठे देखते रह गए। इस बात से मेरे हृदय को कितनी चोट पहुची मै हो जानती हूं।"
"दुष्ट कीचक कितने ही दिनो से मेरे सतीत्व को नष्ट करने का ण्डयन्त्र कर रहा है। वह इस देश का वास्तविक नरेश है। विराट तो नाम मात्र के ही नरेश है। उस दिन कामान्ध ही मुझे बल पूर्वक अपनी वासना की अग्नि मे जलाना चाहा, मै जैसे तैसे वच निकली और अपमानित हुई पर ऐसे कब तक काम चलेगा ? प्रति दिन उसके पाप पूर्ण प्रस्तावो को सुन कर मेरा हृदय विदीर्ण । हो रहा है। जब मै महाराजाधिराज युधिष्ठिर - को, जो धर्मराज कहलाते है. अपनी जीविका के लिए कायर नरेश की उपा- - सना करते देखती हूं, तो मेरा हृदय फटा जाता है।"
महावली भीमसेन को जब मैं रसोइया के रूप मे देखती हु, तो मुझे बहुत दुख होता है। पाकशाला मे भोजन तैयार होने पर ___ जब वे वल्लभ नाम धारी रसाइया के रूप में विराट की सेवा मे ,
प्रस्तुत होते है तो मेरा हृदय रोने लगता है। और आप जो अकेले ही रथ मे बैठ कर मनुष्यो की तो क्या देवताओं को भी पराजित करने की शक्ति रखते है आज रनिवास मे विराट की कन्याओ को बृहन्नला के वेप मे नाच गाना सिखाते दिखाई पड़ते है तो मेरे, हृदय मे कितनो वेदना होती है, उसे व्यक्त करना सम्भव नही है। और ! कितना बड़ा अनर्थ है कि धर्म में, सत्य भापण मे और शूरता मे जो जगत प्रसिद्ध हैं वही हो जडे बने हुए है। आपके छोटे भाई सहदेव को जब मैं गौओं के साथ ग्वालो के वेप मे आते देखती हू तो मेरे शरीर का रक्त सूख जाता है, वरवस अश्रु छल छला आते है। मुझे याद है जब वन को पाने लगी उस समय माता कुन्ती ने रोकर कहा था-"पाचाली! सहदेव मुझे वडा प्यारा है, यह मधुर भापी सम्य धर्मात्मा तथा अपने सब भाइयो का आदर करने वाला है, किन्तु है बडा ही सकोची । तुम इसे अपने हाथ मे ही भोजन कराना। देखना! इसे कोई कष्ट न होने पाये।"