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________________ कीचक वध श्रागका से उसका हृदय कपित हो गया । (द्रौपदी) लज्जा और क्रोध के मारे ग्रपनी हीन ग्रौर असहाय अवस्था अपना t अपमानित सौरन्ध्री आपे से बाहर हो गई थी । पर उसे वडा क्षोभ हुमा उम का धीरज टूट गया । परिचय ससार को मिल जाने से जो ग्रनर्थ हो सकता था उस की भी चिन्ता न कर के वह मन ही मन कीचक के वध की बात सोचने लगी। कहते है कि उस ने सर्व प्रथम अर्जुन से जो उम समय वृहन्नला के रूप मे थे, अपनी व्यथा और कीचक वध का प्रस्ताव कहा। अर्जुन वोले- प्रिये । तुम्हारे अपमान की बात सुन कर = मेरे हृदय पर जो बीत रही है उसे में शब्दो मे व्यक्त नहीं कर मकता । मेरा खून खौल रहा है । भुजाए फड़क रही है । वार् - वार गाण्डीव का स्मरण हो रहा है । मुझे अपने पर निमत्रण रखना दुर्लभ हो रहा है । परन्तु फिर भी मुझे महाराज युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा का ध्यान आता है । मैने तुम ने और मेरे अन्य भाईयो ने उनकी प्रतिज्ञा के कारण जो जो कप्ट उठाए हैं, वे ऐसे हैं जिन के कारण कोई भी स्वभिमानी व्यक्ति विचलित हो सकता है ! और तुम ने तो हम सभी से अधिक दुख भोगे हैं और भोग रही हो । पर मैं इस समय भ्राता जी के आदेश से बन्धा हू । चित्रश हू, बल्कि पगु ही समझो।" १९१ यशस्वी अर्जुन को बात से द्रोपदी को शान्ति न मिली । दुखित होकर बोली - " प्राण नाथ | मै पांचाल नरेश की पुत्री हू, क्या इन्ही दुरावस्थाम्रो मे डालने के लिए ही आप मुझे स्वयंवर में जीत कर लाये थे ? उस दिन की बात तो आप न भूने होगे जय दुष्ट दुःशामन मुझे 'दासी' कह कर, मेरे केश पकड कर भरी सभा मे खीच लाया था । और भरी सभा में मुझे वस्त्र होन करने की चेष्टा की थो I आज भी मेरे कैणों मे मुझे उस पापी के हाथो की दुर्गन्ध आती है । उस अपमान को आग में में नदा 'ही जलती रहती हूँ । मेरे अतिरिक्त नसार मे और कौन सी राजकन्या है जो उन अन्याय सहन कर के भी जीवित हो ? वनबास के दिनों में दुष्ट जयद्रथ ने मेरा स्पर्श किया, वह मेरे लिए {
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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