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आशीर्वाद प्राप्ति
यह सहज मे ही अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होने अपने उल्लास को प्रगट करते हए प्रश्न किया-"यदि आप मुझ से वास्तव मे प्रसन्न हैं और हृदय से मेरी विजय की आशा व कामना करते है तो आप मेरे विरोध मे क्यो है । यद्यपि मैं पाप से यह प्रार्थना करने कदापि नही पाया कि आप पक्ष बदल ले तो भी. अपनी घृप्टता की क्षमा चाहता हुआ आप से अपनी शका के समाधान के लिए पूछता हू"
यधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर उन्होने गम्भीरता पूर्वक दिया। कुछ क्षण तक मौन रहे और बोले-"धर्म राज ! तुम अपनी धर्म बुद्धि से कभी कभी मुझे परेश नी मे डाल देते हो यह प्रश्न तुम ने मुझ से ऐसे समय किया जव मैं यह नहीं चाहता कि मैं अपने को स्वय ही दोपी मान वैलूं जब कभी मनुष्य को यह विश्वास हो जाता है कि उसका निर्णय अथवा निश्चय गलत है तो वह पूर्ण उत्साह तथा प्रात्म विश्वास के साथ उस पर अमल कर ही नही पाता। फिर भी जब तुम ने पूछा ही है तो मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि कभी कभी मनुष्य को जीवन में कुछ कडबी बातें भी करनी होती है, ऐसे कार्य भी करने पड जाते है, जिन्हे करते हुए मनुष्य को स्वय लज्जा आती है। जब पूज्य पिता जी ने अपना दूसरा विवाह, रचाया था तो मैं ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी नई मा की सन्नानो. और उनके वंशजो का साथ दूगा। दूसरे यह पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का भी दास नहीं, यही सत्य है औह इसी अर्थ मे ही कौरवो ने मुझे बाध रक्खा है। इसी से मैं तुम से नपुसको जैसी वात कर रहा हूं।"
युधिष्ठिर ने तुरन्त पितामह के चरण पकड लिए और करुण । शैली से वोले - "पूज्य पितामह ! आप ने अपने लिए यह शब्द
प्रयोग करके मुझे क्यो पाप मे धकेल दिया मेरा तात्पर्य आप को लज्जित करना नही था। आप चाहे जिस ओर रहे हमारे लिए आदरणीय है। मैं तो श्राप से केवल युद्ध की प्राज्ञा लेने आया था।"
पितामह की आखो मे स्नेह तथा दया के भाव उमड पाये। Fउन्हाने स्नेहपूर्ण शब्दो मे कहा-"राजन! तम्हारी जितनी प्रशसा