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जैन महाभारत
पता चला । भय के मारे केसे अपने भाईयो सहित भीगी बिल्ली बना हुआ भीष्म पितामह की शरण मे या रहा है ।"
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कोई बोला - "अरे ! जिसकी पीठ पर अर्जुन भीम, नकुल, सहदेव, श्री कृष्ण आदि रण बाकुरे हो उसे इतना भय ! बिना लड ही पीठ दिखाना प्रारम्भ कर दिया
"
एक बोल उठा - " तुम लोग अपनी अपनी हांक रहे हो, तनिक देखो तो सही क्या होता है भई, यह ठहरे राजनीतिज्ञ, इन का क्या पता किस समय क्या पैंतरा बदले । वह देखो महाराज युधिष्ठर भीष्म जी के पास जा रहे हैं। देखना है क्या कहते हैं ।"
सक्षेप मे यह कि जितने मुह उतनी ही बातें के सैनिक युधिष्ठिर की इस दशा से बहुत प्रसन्न थे। लड ही पान्डवो की पराजय की कल्पना कर रहे थे ।
पर कौरवों और विना
होकर भीष्म
लगे - " अजेय
।
महाराज युधिष्ठिर शत्रुओ की सेना के बीच में जी के पास पहुचे और उनके चरण स्पर्श करके कहने पितामह ! मैं आपको शत शत प्रणाम करता हू कि आज हमे आपके विरुद्ध युद्ध करने आना पड़ा। ग्राप जैसे कृपालु पितामह के विरोध मे हमे आना पड़ रहा है । पर जो कुछ होना है वह ता होगा ही । ग्राप से प्रार्थना है कि हमे युद्ध की आज्ञा दे और साथ ही अपना बहुमूल्य शुभ आशीर्वाद भी । "
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मुझे खेद है हा, शोक कि
ग्रव
भीष्म पितामह महाराज युधिष्ठिर के हृदय की विशालता देखकर प्रसन्न हो गए। गदगद कण्ठ से कहा- 'युधिष्ठिर । यदि तुम इस प्रकार मेरे पास न प्राते तो मुझे आश्चर्य होता । परन्तु व तुम ने अपने गुणो के अनुरूप पर ससार के लिए विचित्र जा दृष्टात प्रस्तुत किया है, इस से मुझे अपने कुल पर गर्व होता है । ग्राज मुझे यह अनुभव हो रहा है कि तुम मुझ से भी अधिक महान हो। तुम जैसे उच्चादर्श के पालन कर्त्ता को युद्ध मे कोई पराजित नही कर सकता | विजय तुम्हारी ही होगी ।"
युधिष्ठिर को इस ग्राशीर्वाद से कितनी प्रसन्नता हुई होगी