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जैन महाभारत
की जाये कम ही है। तुम आज्ञा चाहते हो, उससे जो स्वय तुम्हारे विरुद्ध सेना लेकर पाया है। रण भेरी मेरी ओर से बजे तो तुम्हारे लिए आज्ञा ही है। इस अवसर पर तुम जो चाहे वरदान मागो। कदाचित तुम्हे कोई वरदान देकर ही मेरी आत्मा सन्तुष्ट हो सकती है। कदाचित वही मेरा प्रायश्चित भी हो हा, बस मेरे सिवाय तुम कोई भी वर माग सकते हो।"
"आप से अब भला मैं क्या मागं। मुझे जिस बहुमूल्य वस्तु की आवश्यकता हो सकती थी वही मेरे लिए निषिद्ध हो गई।"युधिष्ठिर बोले।
"नही, मुझे सन्तुष्ट करने के लिए ही सही कुछ न कुछ अवश्य मागो "- भीष्म पितामह ने हठ करते हुए कहा
आप हमारे दादा हैं, जिन्हे आप जैसे दादा मिले हो, उस सन्तान को क्यो- न अपने पुरखो पर गर्व होगा-युधिष्ठिर कहने लगे |--आप ने अपनी ओर से जो प्रस्ताव किया है उसके बोझ से मेरी गरदन झुकी जा रही है आप कुछ देना ही चाहते है तो मैं कहता हूं। आप अजेय हैं, और आप है विपक्ष मे फिर जब आप को कोई जीत ही नहीं सकता, तो फिर हमारी विजय कसे होगी, हम कैसे जीत सकेगे ? आप का आशीर्वाद कैसे पूर्ण होगा? बस इतना बता दीजिए।" - .
भीष्म बोले कुन्ती नन्दन ! दुखती रगे पकडते हो। तीर निशाने पर मारते हो .. ठीक है सग्राम भूमि मे जो मुझे ऐसा कोई दिखाई नहीं पडता अन्य पुरुष तो क्या स्वय इन्द्र मे भी ऐसी शक्ति नही है इस के अतिरिक्त मेरी मृत्यु का भो कोई निश्चत समय नही है। इस लिए किसी दूसरे समय तुम मुझ से मिलना।"
भीगम पितामह की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के पश्चात युधिष्ठिर उन्हे प्रणाम कर के प्राचार्य द्रोण की ओर चले। उन्हे प्रणाम कर के वोले-"गुरुदेव.! सर्व प्रथम मैं आप से क्षमा याचना करता हूँ क्यो कि आप के विरुध मैं युद्ध करने आया