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पाशीर्वाद प्राप्ति
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है। तदुपरान्त मैं हादिक खेद के साथ निवेदन करता हूं कि मुझे विवश होकर आप से युद्ध करने आना पड़ा है। परन्तु धर्म नीति के अनुसार मैं बिना आपकी आज्ञा के आप से नही लड सकता, अतएव कृपया आज्ञा दीजिए कि मैं आप के विरुद्ध युद्ध करू 1 जिस से कि मैं अपने गुरुदेव से लड़ने के पाप से बच जाऊं। आप यह भी बताने को कृपा करे कि मैं शत्रुनो को किस प्रकार जीत सकूगा ।"
ओह ! कितना गम्भीर प्रश्न था यह। प्रश्न कर्ता के साहस को देखिये और अब आचार्य द्रोण के उत्तर को सुनिए। कहते है- 'राजन् ! तुम्हारे इस व्यवहार ने कुछ हद तक मुझे युद्ध से पूर्व ही जीत लिया। तुम ने यहा पधार कर अपने चरित्र में चार चाद लगा लिए। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे तुम जैसे शिष्य पर गर्व है। और तुम जैसे स्थिर स्वभाव वाले व्यक्ति की विजयकामना किए बिना नही रह सकता। तुम युद्ध करो. तुम्हारी विजय होगी। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करू गा, बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है ? इस स्थिति में अपनी ओर से युद्ध करने के सिवा तुम्हारी जो भी इच्छा हो कहो। मैं क्यो इधर हू इसका उत्तर यह है कि अर्थ किसी का गुलाम नही होता, परन्तु मनुष्य ही अर्थ का दास होता है। और इस अर्थ से कौरवों ने मुझे बाध लिया है । में इस स्थिति में युद्ध तो कौरवो की ही ओर से करू गा और किसी को रियायत भी नही कर सकता. फिर भी विजय तुम्हारी हो चाहता हूं।"
गुरुदेव का उत्तर सुन कर यधिष्ठिर ने कोई वादविवाद नही किया। न खिन्न ही हए. न किसी प्रकार का प्रावेश ही पाया, ने उलझन मे ही पडे। सुर्शिष्य की भांति नम्र स्वभाव से कहा"गुरुदेव ! आप कौरवो की ओर से यद्ध करे। किन्तु आप मुझ वर ही देना चाहते हैं तो वस इतना ही दें कि विजय मेरी ही चाहे मार मुझे समय समय पर उचित परामर्श देते रहे ।"
द्रोणाचार्य को यधिष्ठिर के इन शब्दो से अपार प्रसन्नता १६. उन्होंने अपनी मनोदशा को छपाते हुए कहा, मनोदशा इस