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जैन महाभारत
लिए छुपाई कि जी चाहता था युधिष्ठिर को छाती से लगा लें, पर । रण स्थल मे उन्होने इसे उस समय उचित न समझा "तुम्हारे परामर्शादाता तो श्री कृष्ण जैसे विज्ञान राज नीतिज्ञ है। उन के रहते मेरे परामर्श की तुम्हे आवश्यकता नही है। श्री कृष्ण जैसे चतुर राज नीतिज्ञ जिधर हैं उधर ही विजय है। और जहा विजय है वही श्री कृष्ण है। तुम निश्चित रहो । कुन्तो नन्दन । अब तुम जाओ और युद्ध करो हा, यदि और कुछ पूछना चाहो तो पूछ सकते हो।"
युधिष्ठिर ने साहस पूर्वक कहा-'विद्वान आचार्य जी। आप को प्रणाम कर के मैं यही पूछना चाहता हूं कि आप को अपने रास्ते से हटाने का क्या उपाय है ?"
युधिष्ठिर ने कैसा चुभता हा प्रश्न किया था, कितना कटु और कितना मामिक, क्या उसे सुन कर कोई व्यक्ति उद्विग्न हुए विना रह सकता था ? हां, द्रोणाचार्य के मुख पर इस प्रश्न के उपरान्त भी कोई चिन्ता, रोष तथा आवेश के चिन्ह नही दिखाई दिए। उन्होने अपनी स्वाभाविक गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया"राजन् । सनाम मे रथ पर आरूढ होकर जब मैं क्रोध मे भर कर वाण वर्षा करूंगा. उस समय मुझे मार सके, ऐसा तो कोई शत्रु दिखाई नहीं देता।"
"तो फिर ?" ___ "हा, जब मैं शस्त्र छोड़ कर अचेत सा खड़ा रहू उस समय कोई योद्धा मुझे मार सकता है, यह सत्य है। एक और सच्ची वात तुम्हे बताता हूँ कि जब किसी विश्वास पात्र व्यक्ति के मुख से मुझे अत्यन्त अप्रिय वात सुनाई देती है तो मैं संग्राम भूमि मे अस्त्र त्याग देता हूं।"
द्रोणाचार्य ने इतने से ही अपनी मृत्यु का उपाय बता डाला " था। पर इस प्रकार से जैसे उन्होने कोई साधारण बात कही हो युधिष्ठिर ने वारम्बार उन्हें प्रणाम किया और फिर आगे कृपाचार्य के पास गये। उन्हे प्रणाम कर के वही बात जो उन्हों से भीष्म