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आशीर्वाद प्राप्ति
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7 तथा द्रोणाचार्य से कही थी। अर्थात युद्ध की आज्ञा मागी * और आशीर्वाद चाहा।
उत्तर मे कृपाचार्य ने प्रसन्न होकर कहा-राजन ! तुम्हारे सम्बन्ध मे जो सुना था, तुम्हे वैसा ही पाया। शत्रु सेना मे खड़े अपने सम्मानित वृद्धजनो से तुम्हारा रण भूमि मे भी वही व्यवहार रहेगा जो साधारणतया रहता है, ऐसी तो केवल तुम से ही आशा की जा सकती है। मैं बहुत प्रसन्न हू। युद्ध की आज्ञा देता हू और प्रसन्न होकर तुम्हे कोई भी बात पूछ लेने या इच्छा प्रगट करने का वर देता हू"
युधिष्ठिर बोले-'गुरुदेव ! आप प्रति दिन प्रातःकाल उठ कर मेरी विजय की कामना किया करे बस मुझे यही चाहिए।"
"इसका तो तुम विश्वास रक्खो ।- कृपाचार्य बोले-~-"और कुछ मागना चाहो तो माग सकते हो बस मुझे अपने पक्ष के लिए मत मागना क्योकि मे दुर्योधन को वचन दे चुका हूं।" ___यदि आप मुझ पर इतने प्रसन्न हैं। तो कृपया अपने परास्त होने का उपाय बता दीजिए।” युधिष्ठिर ने पूछा।
कृपाचार्य बोले-"धर्मराज | मैं तुम्हारी विजय की कामना किया करूगा, इतना ही तुम्हारी विजय के लिए पर्याप्त है । तुम मेरी चिन्ता न करो । विश्वास रक्खो कि तुम्हारी विजय के रास्ते में आने वाली रुकावटें किसी न किसी प्रकार दूर हो जावेगी । अन्त मे विजय पताका तुम्हारे ही हाथ मे होगी।"
कृपाचार्य की वातो से सन्तुष्ट होकर युधिष्ठिर ने उन्हे प्रणाम किया और महाराज शल्य के पास गए। उन्हे प्रणाम करके कहा-राजन् ! आप मेरे मामा लगते है। आप से बिना आज्ञा लिए में आप के विरुद्ध भला कैसे लड सकता है। अतएव ग्राप प्राज्ञो दें ताकि मैं इस पाप से बच जाऊ।"
गल्य बोले-"राजन् ! जब मैं स्वयं ही तुम्हारे विरुद्ध