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________________ २०० जैन महाभारत ____ कीचक ने पलग पर लेटी हई आकृति को सौरन्ध्री समझ कर बंडे प्यार से उस पर हाथ फरा। उस समय कामात्तुर होने के कारण उसका हाथं काप रहा था। उस ने कहा- “कोमलांगनी. उठो। मैं आगया। मैं तुम्हारा प्रेमी ! कितने दिनो से जिस कल्पना को मन में सजोया या आज उसकी पू। हुअा चाहती है। मेरे मन की चाह पूर्ण होगी। तुम जो सारे संसार में सर्वाधिक सुन्दर हो, आज मुझ मिली। कितना उल्लास है मेरे मन मे? वस क्या बताऊ। मुझ जैसा सौभाग्य शाली और कौन होगा, जिसे तुम जैसी अप्सरा का प्रेम मिला हो।" उसी समय वह प्राकृति विद्युत गति से जाग उठी. झंपट कर उस ने कीचक दुष्ट का हाथ पकड लिया। जिस प्रकार मृग पर सिह झपटता है, उस प्रकार वह प्राकृति झपटी। और कीचक का हाथ दबोच लिया। और इतने जोर का धक्का मारा कि प्रेम विह्वल कीचक धड़ाम से धाराशायी हो गया। कीचक समझ गया कि आकृति सौरन्ध्रो न होकर उसका पति गंधर्व ही है। गर्व से पाला पडा जान कर वह मम्भल कर उठा। कीचक भी कोई कम शक्तिवान न था। वह उठा और भिड गया। दोनो मे मल्ल युद्ध होने लगा। यह इन्द्र बालो और सुग्रीव के युद्ध के समान था। दोनो हो वडे वीर थे। उन की रगड से वास फटने की सी कडक के समान भारी शब्द होने लगा। जिस प्रकार प्रचन्ड प्राधी वृक्ष को झझोड़ डालती है उसी प्रकार कीचक से लड़ने वाले याद्धा ने उसे धक्के दे देकर सारी नृत्य शाला मे घुमाया। बली कीचक ने भी अपने घुटनो को चोट से शत्रु को भूमि पर गिरा दिया। तब वह वोर दण्ड पाणि यमराज के समान बडे वेग से उछल कर खटा हो गया। एक बार ऋद्ध होकर उसने कोचक को अपनी भुजायो मे कर लिया, जैसे रस्सी से पशु को बाघ देते है। अब कोचक फुटे हए नगारे के समान जोर जोर से इकारने और उसकी भुजायो मे अपने को मुक्त करने का प्रयत्न करने लगा। तनिक सी देरी ही में कीचक का गला उस वीर के हाथ में गया और उसने कीचक के सभी अंगों को चकना चूर
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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