SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कीचक वध । रहती हैं-द्रौपदी ने अपने मन मे उठ रहे घृणा तथा क्षोभ के भयकर .: तूफान को छुपाते हुए कहा-रात को वे सब अपने घर चली जाती । है। वहा कोई नहीं रहता। वही स्थान उपयुक्त है आप आज । रात्रि को वही आकर मुझ से मिले। मैं बही मिलूगी, किवाड र खुले होगे आप चुप चाप वहा या जाये। देखिये किसी को कुछ भी पता न चले।" कीचक के आनन्द का ठिकाना न रहा। वडी बेचैनी से दिन बीता। वारम्वार कीचक आकाश की पोर देखता रहा, उसके अनुमान से वह दिन द्रौपदी के चीर की भाति बढता जा रहा था। पर द्रौपदी का चीर तो असीम था, दिन तो उतना ही लम्बा था, आखिर किसी तरह रात हुई। कीचक के दिन ढले ही स्नान किया। रात्रि का अधकार फैलते ही बन ठन कर निकला और दबे पाँव नत्य शाला की पोर वढा । नृत्य शाला के किवाड खुले थे. देखते ही उसका हृदय वासो उछलने लगा। शोघ्नता से वह अन्दर घुस गया ताकि कोई देख न नृत्य शाला मे अधेरा था। कीचक ने गौर से देखा तो : पलग पर कोई लेटा हुआ दिखाई दिया। उम ने समझा उस के ' स्वप्नो की रानी पलग पर लेटी है। उस के हृदय ने कहा ग्रोह ! अपने वचन की कितनी धनी हे वेचारी । कदाचित दिन ढले ही आ गई है और मेरी प्रतिक्षा करते करते थक कर पलग पर सो गई है।" अघरे में टटोलता हुआ पलग के पास पहुचा। और धीरे से । फुन फुमाहट में बोला - "मेरे हृदय की रानी! मृग नयनी! प्रियतमा ! तुम प्रा गा। प्रोह ! मुझे कितनी देर हो गई। क्षमा करना। मै तुम्हारे वचन की पूर्ति के लिए बहुत छुपकर यत पाया है।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy