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जैन महाभारत
शरण जाकर तुम्हारी रक्षा हो सकेगो, पर मूर्ख सौरन्ध्री क्या तू नहीं जानती कि विराट तो मत्स्य देश का नाम मात्र का राजा है, असल मे तो मैं ही यहा का सब कुछ है। यदि मेरी इच्छा पूर्ति करोगी तो महारानी का सा सुख भोगोगी, और मैं तुम्हारा दास बन कर रहूगा। वरना तुम्हारा जीवन भी दुर्लभ हो जायेगा। मेरे पजे से तुम्हे कोई नहीं बचा सकता। इस लिए मेरी बात मान लो।"
उस समय दोपदी ने कुछ ऐसा भाव बनाया मानो कीचक का प्रस्ताव उसे स्वीकार है और वह उस के प्रभाव मे आ गई है। वह बोली।
सेनापति ! मैं आप की बात टालने का साहस भला कैसे कर सकता है। पर लोकलज्जा मेरे पाड़े आती है। मैं सच कहती हू कि मुझे अपने पति से बड़ा भय लगता है। यदि आप मुझे पचन दे कि आप मेरे साथ समागम की बात किसी को मालूम न होने देगे तो मैं आप के प्राधीन होने को तैयार हं! लोक निन्दा से मैं डरती है और यह नही चाहतो कि यह वात. पाप के साथी सम्ब. धियो को ज्ञात हो। बस इतनी सी हो बात है।"
कीचक की बाछे खिल गई। आनन्द विभोर हो कर बोला-"वस इतनी सी बात पर तुम परेशान हुई फिरती हो और व्यर्थ ही बात का बनगड बनवा रही हो। तुम्हे विश्वास प्राय न पाये पर वास्तव में मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूगा और इस बात का पता किमी को न चलने दगा। मैं वचन देता हूं कि मैं तुम्हारे रहस्य को अपना रहस्य समझ कर अपने हृदय मे दफन कर दूगा। वम मुझे ता तुम्हारी 'हा' की आवश्यकता थी। अब बोलो मैं तुम्हारे लिए और क्या कर सकता हूं।"
"पाप की मेवा मे फिर यह दासी भी उद्यत है।"
नि ?"
"तो फिर मधुर मिलन के लिए कोई ममय, कोई स्थान ।' "नृत्य शाला मे स्त्रिया दिन के समय तो नृत्य कला मीखती