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कृष्णोपदेश
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लिए प्रेरित नही करता।- श्री कृष्ण कहने लगे-परन्तु यह तो । प्रश्न है न्याय तथा अन्याय का। इस युद्ध मे यह निश्चय होना है । कि न्याय की विजय होती है अथवा अन्याय की। तुम्हे न्याय का सिर नीचा कराना है तो तुम युद्ध से भाग सकते हो"
"फिर भी मुझे बार बार अपने स्वजनो का ध्यान आता है" - अर्जुन ने कहा। __ "अर्जुन | तुम उनके शरीर का आदर करते हो या आत्मा
का?"
"शास्त्र कहता है:जह नाम असी कोसा, अन्नो कोसो असीवि खलु अन्नो।
___ इह मे अण्नो जीवो अन्नो देहुति मन्निज्जा ॥ जैसे म्यान से तलवार और तलवार से म्यान भिन्न होती है, इसी प्रकार मेरा यह जीव शरीर से भिन्न और शरीर जीव से भिन्न है। ऐसा सोचकर शरीरक ममत्व दूर करे ।
धीरे णवि मरियव्व, काउरिसेणवि अवस्स मरियव्व
तम्हा अवस्स मरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउ ॥ वीर पुरुष को भी मरना पड़ता है और कायर पुरुष के लिए भी मरना आवश्यक है। जब अवश्य ही मरना है तव धीर की प्रशस्त मौत से मरना ही श्रेष्ठ है।
इस लिए हे पार्थ । शकाए छोड कर वीरगति या विजय इन दोनो मे एक प्राप्त करने को तैयार होजा। उठ ! तेरे बाण से कोई अात्मा समाप्त होने वाली नही। शरीर नश्वर है, वह मिटना ही है। तुम उसकी चिन्ता क्यो करते हो। मेरा विश्वास है कि विजय तुम्हारी ही होगी।"
श्री कृष्ण के इतना समझाने पर भी जब अर्जुन को रण का उत्साह नहीं हुया तव श्री कृष्ण ने गरज कर कहा.-"पार्थ। यदि रण भूमि में जा कर कौरवो की भारी सेना को देख कर तुम अपने साहस को जीवित नही रख सकते थे तो फिर हमे जो केवल तुम गों के कारण ही वैठे विठाए युद्ध मे चले पाए है क्यो मूर्ख बनाना