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जैन महाभारत
कर देखो कि वे क्या कहते हैं । कहा है कि. -
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नाल ते तब ताणाए वा सरणाए वा तुमपि ते सि नाल ताणाए वा सरणाए वा
स्वजन सम्बन्धी लोग पाप के फल भोगने के समय तुम्हारी रक्षा नही कर सकते, न तुम्हे शरण दे सकते है, तुम भी उन के एव शरण के लिए समर्थ नही हो ।
त्राण
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'जब तुम्हारी आत्मा पर कोई आपत्ति आयेगी तो तुम्हारी रक्षा न तुम्हारे गुरुदेव कर सकते हैं और नांही पितामह, कौरवो की तो बात ही क्या है ? न तुम्हारे पाप मे भाग बटा सकते हैं। तुम्हारी अपनी आत्मा स्वतन्त्र है, तुम्हारे वन्धु तथा अन्य स्वजन तो तुम्हारी मोह वृति से ही तुम्हारे है, वरना प्रत्येक अपने अपने कर्मो का फल भोगता है मोह को छोड़ कर तुम्हें अपने कर्तव्य पघ पर अग्रसर होना चाहिए ।"
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" हे गोविन्द ! आप यह तो बताइये कि यदि मैं इस रण मे भाग न लूं तो मेरी आत्मा पर क्या प्रभाव होगा ? मैं गाया पाप ? " - अर्जुन ने पूछा !
पुण्य कमाऊ
"हे पार्थं । जो अपने कर्तव्य से पीछे हट जाता है उस का कभी कल्याण नही होता । तुम्हारी आत्मा पर तुम्हारे भावो और कार्यों का अवश्य ही प्रभाव पडना है । 'जो कम्मे सूरा, ते धम्मे सूरा, अर्थात जो कर्म मे शूर होता है वह धर्म मे भी शूर होता है। तुम रण स्थल से चले जाओगे तो मोह के कारण श्रीर महाराज युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा को अधूरा छोड़ कर । इसलिए तुम स्वय सोच लो कि इस कर्तव्य विमुखता और विश्वास घात का तुम पर क्या प्रभाव होने वाला है ।" श्री कृष्ण ने उत्तर दिया ।
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कृष्ण के उत्तर को सुन कर अर्जुन सोच मे पड़ गया। कुछ देर विचार करने के उपरान्त वह फिर बोला - "परन्तु एक. परिवार ही केवल एक राज्य के लिए लड़े या रक्त पात करे यह कहा तक उचित है ?"
氨 "केवल राज्य की ही बात होती तो मैं तुम्हे कभी युद्ध