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जरासिन्ध वध
के मरते ही जरासिन्ध पक्ष की सेना में भगदड मच गई। यह दृश्य देख कर जरासिन्ध बहुत चिन्तित एव दुखित हुआ और युद्ध बन्द करके उसने दूर जा कर तेला तप धारण किया और कुल देवी को स्मरण करके उसकी आराधना की अन्त मे उसने कहा-"माता । मेरा भविष्य अन्धकारमय होता जा रहा है। सारे सहयोगी निष्काम होते जा रहे है, बस अव तेरा ही एक मात्र सहारा है। हे माता, शीघ्र आयो और शत्रु की सेना का वल क्षीण करो।"
जरासिन्ध की विनती से सुरी पाकर यादव सेना पर कोप गई और सारी सेना को निर्वल बना कर चली गई । सैनिक अस्त्र शस्त्र चलाना चाहते पर हाथ काम ही नहीं करते थे. तब बडो चिन्ता हुई । अरिप्ट नेमि जी से उस समय मातली ने सुरी के अभाव को समाप्त करने की युक्ति बताई, मातली के कथनानुसार ही कार्य किया गया, और देवी की माया समाप्त हो गई। फिर यादव सेना अपनी पूर्ण शक्ति से लडने लगी।
. परन्तु जरासिन्ध समझने लगा कि यादध सेना का प्रात्म वल कम हो गया है, इस लिए उसने एक दूत भेज कर समुद्र विजय के पास सन्देश भिजवाया कि श्री कृष्ण और वलराम को हमारे हवाले कर दो, तो हम युद्ध बन्द करके वापिस चले जायेगे।।
समुद्रविजय ने दूत से कहा- 'जरासिन्ध चाहे युद्ध करे या रण क्षेत्र से भाग जाय, जव तक यादवों के दम में दम है, वे किसी प्रकार भी ऐसी शर्त को स्वीकार न करेंगे।"
दूत के जाने के बाद समुद्र विजय ने यादवों को ललकार कर कहा- क्या बात है, शत्रु को ऐसा अपमान जनक प्रस्ताव भेजने का साहस क्यों हुग्रा? क्या यादवों की तलवार की गति धीमी हो गई है, पया यादव योद्वानों के हौसले पस्त हो गए हैं ? क्या हम शत्रु को लेने का अवसर देकर अपना उपहान कराने पर तुले हैं। यदि तुम यादव अथवा सच्चे वीर होते घर वापिन जाने की इच्छा को भूलकर मागे बटो। एक ही दगा में घर जाना है वह विजय की पताका फहराते ही कोई घर जायेगा, वरना यही पाट कट कर मर जायेगा।'