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________________ जैन महाभारत जागेगी, दूसरों के जीवन को अपने जीवन के समान समझेगा, और सब प्राणी तेरी भावना में तेरी अपनी आत्मा के समान बनने लगेंगे और सारे संसार को समान दृष्टि से देखेगा, और समझेगा कि जो वस्तु मुझे प्रिय है वही इन्हे भी है क्योकि - सव्वे प्रारणा पिया उमा, सुहसाया, दुख पडि कूला, अप्पिय वहा, पियाजी विगो, जीविउकामा । सव्वेंसि जीवी यंपियं । अर्थात - सव जीवो को जीवन प्रिय है और सभी जीना चाहते है सुख के लिए तरसते हैं और दुख से घबराते हैं अतः प्राणियो के जीवित्तव्य एव सुख का यदि तू निमित बनने को तैयार रहता है तो तभी समझना कि तेरे अन्दर अहिंसा है अर्थात तू वास्तव में मानव है । सव्वे जोवा वि इच्छति, जीविउ न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गथा वज्जयति णं ॥ सव जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नही चाहता। सभी को अपने जीवन के प्रति श्रादर और आकांक्षाए हैं । सभी अपने लिए सतत प्रयत्न शील हैं। अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है, सत्ता के लिए जूझ रहे है सो जैसा तू है वैसे ही सब हैं । भगवान कहते हैं कि इसी लिए मैंने प्राण वध अर्थात हिंसा का त्याग किया है । और दूसरो को सताना छोड़ा है। स्वयं को सताया जाना पसन्द होता तो दूसरो को सताना न छोडते । मर जाना पसन्द होता तो मारना न छोडते । मगर सभी प्राणियो के जीवन की धारा एक है । तुमंसि गाम तं चेव जं हत व्वति मरासि तुमंसि गामतं चैव जं ग्रज्जावेयव्वति मरासि तुमंसि नाम तं चैव ज परियावेयव्वति मरणसि, एवं जं परिछेत्तव्वति मरणसि, जं उद्धवेयव्वंति मरणसि,
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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