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जैन महाभारत
__ भजू चेय षडिवुद्ध जीवी मम्हा ण हता विधायण,
अणुसंवेयरामप्याणे रण ज हंतव्वं गाभिपत्थए ।
तुम जिस जीव को कष्ट देने योग्य, परिताप उपजाने योग्य यावत मारने योग्य समझते हो वह प्राणी तुम्हारे समान ही शिर पैर, पीठ और पेट वाला है। यदि कोई प्राणी तुम्हे दुख देवे यावत् मारने के लिए आता हो तो उसे देख कर जिस प्रकार तुम्हे दुख होता है। उसी प्रकार दूसरे जीवो को भी होता है । अथवा जिस काय को तुम हनन करने योग्य मानते हो उस काय में तुमने हजारों बार जन्म धारण किया है, इस लिए यह समझो कि तुम ही हो। इस प्रकार विचार करके जो पुरुष सब जीवो को प्रात्म तुल्य मानता है, वही श्रेष्ठ है। जो जीवो की हिंसा की जाती है उसका पाप स्वय जीव को ही भोगना पडता है। अत: किसी भी प्राणी की स्वय घात न करे, न दूसरो से करवाये, और करने वालो की अनुमोदना भी न करे ।
शास्त्र मे एक अन्य स्थान पर कहा गया है :सव्वेपारणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता रण हंतव्वारण अज्जा वेयव्वा रण परिधेतन्वा ण परिया वेयवारण उद्दवेयवा, एस धम्मे सुध्दे गिइए सासए।
-अर्थात एकेन्द्रिय से ले कर पचेन्द्रिय तक किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए, उन्हे शारीरिक व मानसिक कष्ट न देना चाहिए। तथा उनके प्राणो का नाश नहीं करना चाहिए । यह अहिंसा धर्म नित्य है, शाश्वत है । हिंसा तीन काल मे भी सुख देने वाली नही है । दया उत्कृप्ट धर्म है ।
दया-नदी महातीरे, सर्व धर्मास्तृणाड कुराः । तस्या शोषमुपेतायाँ प्रियन्नन्दति ते चिराम 120 ऐन्द्रिक लोलुप्ता के वरावर्ती मानव द्वारा किये जाते फूर पामों