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________________ जेन महाभारत को स्मरण कर-कर राजा का मन ग्लानि से भर उठा था जिस के कारण पाड़ नप का मन ससार, शरीर और भोगो से विरक्त हो गया कहा तो वह विषयानुरागी था और कहा उमने यह सोच कर कि भोग से अन्य पापो के झझट मे उलझ कर पाता के धर्म को भूल गया हूं, मुझे अपनी आत्मा के लिए भी कुछ करना चाहिए. मुक्ति के लिए भी कुछ करना है. यह तो मेरा जीवन ही सव व्यर्थ जा रहा है, ससार के सारे मोह बधन तोड डाले इसी लिए तो काल लब्धि एक ऐसी वस्तु है जो जीव की भवितव्यता के अनुसार उसके भाव और तद स्वरूप क्रिया कर देती है। पाण्डु नृप उस समय विचारने लगा- इन्द्रिय विषय प्राणियो के लिए दुर्गति मे ले जाने वाला है। जहां वृथा ही प्राणवध हो उसमे मेरी क्या सिद्धि ? जिस राज्य काज से पाप हो भला उससे मेरा क्या सम्बन्ध ? फिर शास्त्रो मे पढा ज्ञान उसके मस्तिष्क मे उभर आया- "इस जीव ने अनन्त वार मनुप्यादि पर्याय धारण करके विषय सुख भोगे, उन से ही जव तृप्ति नही हुई तव अब केसे तृप्ति हो सकती है,"फिर वह सोचने लगा ।- "जो एक वार भोगी. जा चुकी वह तो जूठी हो गई, ससार मैं कौन ऐसा वुद्धिमान जो उच्छिप्ट खाना पसन्द करेगा ? फिर विषय भोगते समय ही सुहावने लगते हैं, उत्तरकाल में नीरस हो जाते हैं, बल्कि विष समान प्रतीत होते हैं अतः विषय सेवन जीव को कोई मुख देने वाली चीज नही है, वह तो रोग का प्रतिकार है इसा लिए प्राचार्यों ने ऊपर के स्वर्गो मे प्रविचार का नहो होना हो सुख बतलाया है। विषय सुख अनित्य है क्षण स्थायी है । कुछ देर चमत्कार दिखा कर नष्ट हो जाने वाला है। नृप विचार करता है कि हे आत्मन ! तूने अनन्त काल तक विषय सुन्व भोगे पर तृप्ति न हुई. परन्तु अव तो सन्तुष्ट हो। इस ममय तो तुझे सब अनुकल साधन मिले हुए हैं । याद रख. ससय पाते हुए तू यदि नही चेता तो कर्म का एक ऐसा झकोरा पायेगा कि पीछे हूण्टे भी पता नही लगेगा। दूसरी बात यह है कि यदि तू समझकर भी इन विपयो से विरक्त नही होता है तो एक दिन वह आयेगा कि तुझे हो यह विषय छोड देंगे। इस लिए समझदारी इसी में है कि तू पहले हो इनका परित्याग करदे और और उन पथ पर पग वढा जिससे तेरा कल्याण होगा। पदार्थ
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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