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जैन महाभारत
मे रत रहने से जीव का कभी कल्याण नही होता यह निश्चय समझ पाण्डु नृप कुछ देर तक विचार मग्न रहे और फिर कुछ निर्णय करके अपने आप से ही बोले -" अब तक मैं मोह के फन्दे मे पड़ा हुआ था, अब मैं प्रति वुद्ध हुआ । इस समय मैं आत्म सुख से सुखी हूं। मुझे सन्तोप है और आत्मा के सच्चे सुख का अभिमान है । अव मुझे-स्त्री प्रेम से कोई प्रयोजन नहीं।
__ कामी पुरुष विपय भोगो मे तन्मय हो कर अपने भोजन को अपने विवेक को, वैभव और वडप्पन को, यहा तक कि जीतव्य को छोड देते है, कामी राजा अपने राज्य धर्म को भूल जाते है, उन्हे अपने कर्तव्य, न्याय अन्याय, का भी ध्यान नहीं रहता, वे मिथ्यात्व के कारण अकरणीय कार्य भी करने योग्य बना लेते है । यह उनकी गिरावट की चरम सीमा आ जाती है। पर कामासक्त होने का कारण हमारा साहित्य भी है। साहित्यकार भी कामासक्त हो कर साहित्य को मानव जाति को नष्ट कर डालने योग्य रच डालते हैं। वे पेट के लिए विषयानुरागियो को प्रसन्न एव आनन्दित करने के लिए कामोत्तेजक कविताएं कह डालते है, जिनका सारे 'समाज पर प्रभाव पड़ता है पर जिस व्यक्ति की हृदय की आँखें खुली है वह जानता है कि जिन कुचो को सुवर्ण के कलश अथवा अमृत के दो घड बताया गया है वे मांस के दो पिड है। जो स्त्री मुख श्लेष्क-खकार और थक का घर है. उसको उपमा दी जाती पूण चन्द्रमा को, इसीलिए स्त्रियों को चन्द्र मुखी कहा जाता है । सीधे सीधे नेत्रो को. जहाँ निद्रा उचटने के पाश्चात मल घृणास्पद मल ही मिलता है, मृगलोचन कह कर प्रशशा की जाती है। इसी प्रकार स्त्री के अन्य अगों की बडी सुन्दर वस्तुग्रो से उपमा दी जाती है, इस प्रकार पाठकों के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। पाण्डु राजा सोचता है वास्तव मे यह हमारी पास है, और हमारे भाव है जिसे अच्छा समझे उसकी हर बुराई को भी भलाई के रूप में देखते हैं। स्त्री का रूप देखकर बेकार ही उत्तेजना प्रा जाती है। वास्तव में वह तो सात धातुओ का पिंड है, नश्वर है, माया का स्थान है, फिर भी तू रागान्ध हो कर उनमे ग्रासक्ति करता है, प्राश्चर्य है तेरी बुद्धि पर ।" उसे अपने अब तक के