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________________ ३५० जैन महाभारत इन चार प्रकार को हिसायो मे से गृहस्थी से सकल्पी हिंसा का ही त्याग हो सकता है। तीर्थड्रो ने श्रावक को उपदेश दिया है कि वह किसी निरापराधी जीव को जानबूझ कर, वध करने के उद्देश्य मात्र से ही न मारे। और शेष तीन प्रकार की हिंसाए मर्यादा बाध कर करने पर गृहस्थी विवश है। प्रारम्भी हिंसा, उद्योगी हिंसा और विरोधी हिंसा की मर्यादा के भीतर रह कर करते रहने वाले गृहस्थी के गृहस्थ नियम सुरक्षित रहते हैं। यदि कोई व्यक्ति पागल हो जाये । ता उसे काबू मे रखने और कोई अनुचित कार्य करने से रोके रखने के लिए उसे बाधकर रखना तथा अन्य कड़े नियन्त्रणो को आवश्यकता होती है। तो क्या कोई यह कह सकता है कि पागल को इस लिए नियंत्रण मे न रक्खो कि तुम्हारे कठोर व्यवहारो से हिंसा होगी। नही ? ऐसा तो करना ही होगा और करना पडता है स्वय पागल के हित के लिए। राम और रावण का युद्ध ही लो। क्या राम ने रावण के विरुद्ध खड्ग उठाकर कोई सा पाप किया था जो किसी गृहस्थी के लिए अनुपयुक्त है। नही ? उस समय रावण के विरुद्ध युद्ध करना आवश्यक था। रावण के अन्याय के विरुद्ध राम चन्द्र का युद्ध विरोधी हिंसा थो । इसो प्रकार तुम्हारा युद्ध विरोधी हिंसा-होगी। इस लिए तुम्हे भ्राति नही होनी चाहिए। उठो और जिस उत्साह के साथ रण स्थल मे आये थे उसी उत्साह पूर्वक शत्रुप्रो का मान मर्दन करो।" श्री कृष्ण की युक्ति पूर्वक बात का अर्जुन पर काफी प्रभाव पडा । पर अभी वह शका रहित न हुए थे । कहने लगे- 'महाभाग ! आप की यह बात मान लू तो भी मैं सोचता हू कि राम और रावण का युद्ध तो दो विरोधो नरेशो का युद्ध था। जिनमे रक्त का कोई सम्बन्ध नहीं था। परन्तु मैं जिनके विरुद्ध लडने आया 'हू वे तो मेरे अपने है। स्वजनो के विरुद्ध लडना भला कैसे उचित हो सकता है !" और हे केशव ! मैं रण क्षेत्र मे स्वजनो का बध करने में अपना कल्याण नही देखता। मैं न तो ऐसी विजय चाहता हू और न राज्य तथा वैभव को ही, जिसके लिए मुझे अपने प्रिय बन्धुप्रो ।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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