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जैन महाभारत
सन्तोष करू तो कैसे ?"
दुर्योधन के वाग्वाणो से पितामह बहुत ही व्यथित उन्होने कोई कड़वी बात नही कही । क्योकि वे तो इस मानने वाले थे कि -
त्रिकाल मिठे वचन ते बसीकरण एक मंत्र है,
सुख उपजे चहुं ओर । तज दे वचन कठोर ॥
हुए. किन्तु सिद्धान्त को
उसके बाद अपने को अपने वाग्वाणो से मेरे शक्ति लगा कर युद्ध कर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण
!
वे बहुत देर तक दीर्घश्वास लेते रहे। नियत्रित करते हुए उन्होने कहा - "बेटा मन को क्यो वेधते हो ? मैं तो अपनी पूरी रहा हू और तुम्हारा हित करना चाहता हूँ। करने के लिए मैं अपने प्राण तक होमने को तयार हू । पर पाण्डव मिट्टी के ढेले तो नही । वे भी तो शूरवीर है। याद करो उन के पराक्रम के दृष्टातो को । गन्धर्व जब तुम्हे पकडे लिए जा रहे थे और कर्ण ग्रादि सभी पीठ दिखा कर भाग गए थे, यही अर्जुन था जिस ने अकेले ही गधव से तुम्हे मुक्त कराया था। विराट नगर की चढाई के समय अकेले अर्जुन ने ही तो हम सब को परास्त कर दिया था । और अपनी वीरता को डीग हॉकने वाले कर्ण आदि के वस्त्र उतार कर उसने उत्तरा को भेंट स्वरूप दिए थे । यह भी तो पाण्डवो की वीरता का ही प्रमाण है। भला जिसके रक्षक त्रिखड पति वासुदेव श्री कृष्ण हो, जो कि अर्जुन के मारथी है, उसे रण मे परास्त करना खिलवाड नही है । में कितना ही चाहू उसे परास्त करना मेरे लिए असम्भव नही तो कठिन ग्रवश्य है । फिर भी विश्वाम रक्खो कि मैं हर सम्भव उपाय अपना कर तुम्हे विजयी बनाने की चेष्टा करूगा । सिवाय गिखन्डी के मैं सब पाण्डवो और उन के सहयोगियो से टक्कर लगा। शिखण्डी को मैं स्त्री मानता हू उस पर शस्त्र नही चलाऊगा यदि तुम्हे मेरे युद्ध सचालन से कोई शिकायत हो तो सेनापतित्व तुम सम्भाल लो और शिखण्डी के अतिरिक्त अन्य किसीके भी मुकाबले पर मुझे डटा दिया करो मे अन्त समय तक लड़ता रहूंगा तुम निश्चित रहो। मैं कल और भो भोषण संग्राम करके तुम्हे सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करुगा । पर इतना श्रवय्य ही ध्यान रखना कि अब मैं बूढ़ा हो गया हू । अब वह शक्ति
तुम
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मुझ मे नही है जो जवानी मे थी और यह भी कि तुम्हारे वाग्वाण