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जैन महाभारत
फिर कैसे काम चलेगा।"
दुर्योधन ने दीर्घ विश्वास छोडा और बोला - "पिता यह, मुझे अपने प्यारे वीरो के विछोह का इतना गम नही जितना शोक इस बात का है कि, जवकि आप के पास इतनी विशाल एव भयानक सेना है, और उसकी व्यूह रचना भी वडी सावधानी से की जाती है, फिर भी पाण्डव महारथी उसे तोडकर हमारे वीरो को मार डालते हैं। हमारे दुर्गम मकर व्यूह तक को उन्होने तोड डाला और जवकि व्यूह मे मेरा ऐसा सुरक्षित स्थान होता है कि शत्रु का दहा तक पहुचना असम्भव होना चाहिए, फिर भी भीमसेन ने अपने मृत्यु दण्ड के समान प्रचण्ड वाणो से मुझे तक घायल कर डाला। दादा जी ! कल तो भीमसेन की रोष पूर्ण मूर्ति को देखकर मेरा कलेजा काप गया। पाण्डव जब जयघोष करते युद्ध से लौटते हैं उस समय मेरे मन पर क्या बीतती है, बस कुछ न पूछिये । हमारे पास उन से सेना अधिक, आप जैसे महारथी हमारे पास, और फिर भी राज्य विहीन पाण्डव हमारे सामने से अकडते व फुफकारते तथा । विजय घोष करते निकलें, यह मुझ से नही देखा जाता। मैं तो
आप की कृपा से पाण्डवो का काम तमाम करने के स्वप्न देखा करता था।"
दुर्योधन की बात भीष्म पितामह ने धीरज से सुनी और वे मुस्करा दिए। जैसे उनके मन मे यह भाव जमा हो कि- "मूर्ख ! वस इतनी सी बात पर घबरा गए।"-- किन्तु भीष्म जी ने कदाचित अपने भावो को छुपाते हुए कहा-"दुर्योधन ! मैं तो अधिक से अधिक प्रयत्न करके पाण्डवो मे घुसता हूं और जो सामने पड जाता है उसे ही यमलोक पहुचाने मे अपने प्राणो तक की बाज़ी लगा देता हूं। भविष्य मे भी मैं अपने प्राणों का मोह त्याग कर पाण्डवो को परास्त करने के लिए जी जान तोडकर लड़गा। तुम विश्वास रक्खो कि मैं तुम्हारी ओर हूं तो शत्रु की ओर से देवता भी क्यो न आ जाये, उन्हे भी मारने मे न चूकगा। परन्तु जव शत्रु की शक्ति पर मैं पार नहीं पा सकू तो मैं क्या करूं?"
"दादा जी ! आप कुछ ऐसा कीजिए कि मेरे हृदय पर रक्खा यह भारी वोझ किसी प्रकार हटे । मैं वड़ा चिन्तित हू।"दुर्योधन बोला।