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छटा दिन
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राजन् ! दुःख त्याग कर साहस से काम लो । जाओ अपनी सेना को तैयार होने का आदेश दो। मैं तुम्हारे लिए प्राण तक दे सकता हू ' इस से अधिक और क्या कर सकता हूं ।"
भीष्म जी की बात सुनकर दुर्योधन को कुछ सान्त्वना मिली । क्योंकि उसके मन मे यही खटका रहता था कि कही भीष्म पितामह पाण्डवों के आगे ढोले न पड जाय, और जब वह भीष्म जी से यह सुनता कि वे पूर्ण शक्ति से युद्ध कर रहे है तो उसे बहुत प्रसन्नता होती और यह आशा हो जाती कि फिर तो उसकी विजय निश्चित
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सेना को तैयार करने के लिए बिगुल बजा दिया गया । कुछ ही देर बाद सैनिको के झुण्ड के झुण्ड अपने अपने शिवरो से निकल कर मैदान मे ग्रा गए। उस दिन भीष्म जी स्वय सेना के श्रागे गए और उचित हिदायते करके स्वयं व्यूह रचना में लग गए । उन्होने भिन्न भिन्न प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से लैस कौरव सेना को मण्डल व्यूह की विधि से खडा किया । उस मे प्रधान प्रधान वीर गजारोही. अश्वरोही, पदाति और रथियो को बहुत ही सोच समझ कर उपयुक्त स्थानो पर खड़ा किया । और स्वयं ने ऐसा स्थान लिया कि देखने से प्रगट होता, मानो सारी कौरव सेना भीष्म जी की रक्षा के लिए हो और भीष्म जी अकेले समस्त सेना की रक्षा के लिए तैनात हो । उस दिन व्यूह के सभी जोड़ों और प्रथकन् पक्ति मे विकट गाडियो, तोप व गोला बारूद से भरी जहाज रूपी गाडियो को खड़ा किया | पश्चिम की ओर को इस दुर्भेद्य व्यूह का
मुख रक्खा गया ।
दूसरी ओर युधिष्ठर ने जव भीष्म जी द्वारा रचित मण्डल ग्रह की व्यवस्था देखकर अपनी सेना को वज्रव्यूह के रूप मे खडा किया और उसके द्वार पर भयकर विकट गाडिया लगा दी ! पाण्डव वीरो ने मुख्य मुख्य स्थानो पर अपने अपने रथ रक्खे और जब सारी व्यवस्था हो चुकी तो महाराज युधिष्ठर ने अपने समस्त वीरो को पुकार कहा- “वोरी ! पाच दिन से आप सभी का पराक्रम शुभ के सीने पर वज्राघातो का काम कर रहा है । हम मन्या में कम है, पर साहस, उत्साह, बल और शौर्य हमारे पास