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* पञ्चम परिच्छेद *
दुर्योधन का षड्यन्त्र १
दुर्योधन का षड़यन्त्र
भौर हो या सायं, निशि हो या दिन, चौबीसो घण्टे दुर्योधन चिन्ता मे घुलता रहता था। उसके लिए उपलब्ध समस्त वैभव शूल समान हो गए, उसे बात बात पर क्रोध आता, दास दासियो पर अकारण ही चिल्ला उठता, रंग सरसों सा हो गया। 'रात्रि को जव श्राकाश मे तारो का जाल विछा होता, शीतल चादनी कलियों के अधरों पर मुस्कान बखेरती, और स्रो कणों को भी श्वेत रत्नों का रूप प्रदान करती, उस समय भी दुर्योधन झझलाया रहता, उस के मुख से दीर्घ निश्वास, निकलती वह हर समय व्याकुल रहता। जव पोस कण पृथ्वी पर फैली हई वस्तुप्रो को भिगो देते, उस समय भी उसके हृदय मे चिन्ता की ज्वाला धधकती रहती। उसका मुह उतरा रहता, और चिडचिडे स्वभाव के कारण सारा महल दुधिन से कापने लगा। वह किसी बात में रुचि न लेता, न किसी स हसता बोलता, निरोग हो कर भी वह रोगी की भाति अधिक समय शय्या पर ही पड़ा रहता। तभी तो कवि ने कहा है :
चिन्ता ज्याल शरीर मे, बनि दावा लगी जाय । प्रगट धुग्रां वहिं संचरे, उर अन्तर धधुग्राय ।। उर अन्तर धंघुग्राय जर जिमि कात्र को भट्टी। रक्त मांस जरि जाय रहे हड्डिन की टट्टी। माह गिरधर पाविराय सुनो हो मेरे मिन्ता: गो नर कैसे जिये कि जिन घर व्याप निन्ता ।।