SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “जैन महाभारत - यह समाचार सुनकर वृद्ध धृतराष्ट्र को शोक तो हुआ पर मन 'ही मन उन्हें आनन्द भो हो रहा था कि उन के वेटों के शत्रु समाप्त हुए और झगडा समाप्त होगया । ग्रीष्म ऋतु मे जैसे गहरे तालाव का पानी सत्तह पर गरम किन्तु गहराई मे ठण्डा रहता है, ठीक उसी तरह वृतराष्ट्र के हृदय मे शोक भी था और आनन्द भी । धृतराष्ट्र और उनके वेटो ने पाण्डवों की मृत्यु का “वडा शोक मनाया। सव आभूषण और सुन्दर वस्त्र उतार दिए और एक एक मामूलो कपडा पहन कर पाण्डवों तथा द्रौपदो को जलांजलि दी। फिर सर्व मिल कर बड़े जोर जोर से रोने और विलाप करने लगे। उनका यह शोक प्रदर्शन अपने षडयन्त्र पर परदा डालने और लोगो की शकाओ को निर्मूल सिद्ध करने के लिए था। सारा हस्तिनापुर रो रहा था, परन्तु दार्शनिक विदुर ने यह कह कर कि जीना मरना.तो प्रारब्ध की वात होती है, इस मे किसी का क्या चारा? अधिक शोक न दीया। उन्हे मत ही मन में यह विश्वास था कि पाण्डव'अवश्य ही बच निकले होगे। अत. दूसरो के सामने तो वे भी कुछ रोये पर मन ही मन यह अनुमान लगाते रहे कि पांडव किस रास्ते से किस ओर गए होगे और इस समय कहाँ पहुचे होगे? इत्यादि पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर मे डूब गए थे। परन्तु अन्त मे उन्हे भी विदुर जी ने समझाया और पाण्डवो की रक्षा के लिए उनके द्वारा किए गए प्रवन्धो का - वृत्तांत वता कर उन्हे चिन्ता मुक्त किया। ___x x x x x x : ४ : लाख के महल को जलता छोड़ कर सुरंग के द्वारा निकल कर द्रौपदी सहित पाण्डव जंगल में पहुंचे। बनो.के वीहड़ रास्ते को रातों रात तय करते रहे। प्रातः होने तक वह चलते रहे और बीहड़ पथ पर पैदल चलते चलते थक गए। द्रौपदी तो बुरी तरह थक कर चूर हो गई थी। उस के लिए एक भी पग उठाना दूभर हो रहा था, अतः वह यह कह कर भूमि पर गिर पड़ी और वोली कि मुझे आत्म शान्ति है पर मुझ से नहीं चला जाता, मैं ता
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy