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________________ १३४ जैन महाभारत और शुद्ध चरित्र के कारण वह विद्याधरो का अधिपति था। उसके दो पुत्र थे, एक का नाम इन्द्र और दूसरे का विद्युन्मालो था। विद्युत प्रभ ससार से विरक्त हो गया, उसने अपना राज्य इन्द्र को सौंप दिया और बिद्यन्माली को युवराज पद से विभूषित कर दिया। . युवराज विद्युन्माली.ने कुछ दिनो पश्चात प्रजा पर अत्याचार करने आरम्भ कर दिये। वह नगर वासियो की सुन्दर स्त्रियो और युवा कन्याओ का अपहरण कर लेता, धनिकों को दिन.दिहाडे लूट लेता, इसी प्रकार के अन्य जघन्य अत्याचार वह करता:। जिसके फल स्वरूप सारे नगर में उपद्रव होने लगा। जनता विद्रोही हो गई। वह राज वश को अपना शत्रु समझ कर उसे उखाड़ फेकने का उपाय करने लगी। परिस्थिति का मूल्याकन करके इन्द्र बहुत चिन्तित हो गया। उसने अपने भाई को एकान्त मे बुला कर समझाया कि-"जनता ही जनार्दन होती है -1,--राज्याधिकारी जन प्रजा को अपनी पाप कामनाओं का शिकार बनाने लगते हैं, तो वही प्रजा जो पहले उनके प्रत्येक आदेश को सहर्ष स्वीकार करती रहती है, अन्त मे अपना शत्रु समझ कर उन पर टूट पडती है। कोई भी राज प्रजा की इच्छा विना.जीवित नही रह सकता । इस लिए तुम अपने इस पापाचार को बन्द करो, प्रजा को सन्तुष्ट कगे और सुपथ पर आ कर प्रजा की सेवा मे तन, मन, धन लगायो। यही कल्याण मार्ग है ।" . परन्तु जिस जीव का भवितव्य ही अच्छा न हो उस को शुभ शिक्षा भी रुचिकर नहीं होती। वह तो कुपथ छोड कर सुपथ पर पाने की अपेक्षा इन्द्र को ही अपना वरी समझने लगा । वह समझता था कि वह राजा है, तो उसे अपनी प्रजा पर मन इच्छित अत्याचार करने का पूर्ण अधिकार है। और इन्द्र जो उसे ही जनता के विद्रोह क कारण समझता है, उस जनता का हिमायती है जो अपने युवराज के विरुद्ध विद्रोह करने का दुस्साहस कर रही है। इन्द्र को उसके रंग ढग अच्छे नही लगे। उसने उसे बुला कर कहा-"विद्युनमाली ! तुम हमारे वश को कलकित कर रहे हो। तुम्हारे कारण हम किसी को मुख दिखाने लायक भी नहीं
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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