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________________ २७१ परामर्श घोखा दिया। उनका भला न्याय प्रियता, तो युधिष्ठिरत नहीं । ति का पालन किया। अब हम यहा इस लिए एकत्रित हुए हैं कि छ ऐसे उपाय सोचे, जो युधिष्ठिर तथा राजा दुर्योधन के लिए लाभ चद हो, कर्मानुकल हो और कीर्तिकर हो, न्यायोचित हो और जिन से पाण्डवो एव कौरवो का सुयश बढे। जिसकी वस्तु है उसे मिल जाये, क्योकि अधर्म के द्वारा तो धर्मराज युधिष्ठिर देवतायो का राज्य भी नही लेना चाहेगे। यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रो ने उन्हे घोखा दिया और भाति भाति की यातनाए पहुचाई, फिर भी युधिष्ठिर तो उनका भला ही चाहते हैं। आप को कौरवो के अन्यायो तथा प.ण्डवो को न्याय प्रियता, दोनो पर ही ध्यान देना है। हों, धर्म न्याय तथा अर्थ से मुक्त हो तो युधिष्ठिर को एक गाँव का आधिपत्य भी स्वीकार करने मे कोई आपत्ति नही। परन्तु यह सर्वविदित है कि जिम राज्य को इनसे छीना था, वह इन के परम प्रतापी पिता और स्वय इनके वाहबल के द्वारा विजित हुप्रा था। यह लोग दुर्योधन से अपना हक माँगते है ! इसलिए इनकी मॉग सर्वथा धर्मानुकूल है। आज लोग यह भी जानते ही हैं कि कौरव बाल्यकाल से हो पाण्डवो के विरूद्ध भिन्न भिन्न प्रकार के षडयन्त्र रचते रहे है। और उन्ही षडयन्त्रा की एक कडी थी जुए की बाजी। जुए मे युधिष्ठर को हराया गया और हारी हुई सम्पत्ति को पुन. प्राप्त करने के लिए जो शर्त रक्खी गई। उसे पाण्डवो ने पूर्ण किया। इसलिए दुर्योधन को अव शर्त के अनुसार इनकी सम्पत्ति लौटा देने मे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । पर चूंकि इस समय दूसरे के पक्ष के विचारो का पता नहीं है। इसलिए सबसे पहले, मेरे अपने विचार से एक ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा, जो धर्मात्मा, परिभचित्त, कुलीन, सावधान और सामर्थ्यवान हो। ताकि वह दुर्योधन को समझा बुझाकर उसके कर्तव्य का बोध करा कर उसकी इच्छा जान सके दुर्योधन को राय जानने पर ही कोई कार्यक्रम स्वीकार किया जाना चाहिए। आप सभी नीतिवान, विद्वान, न्याय प्रिय लोग यहाँ उपस्थित है, अत इस सम्बन्ध मे दोनो पक्षो के गुणो को ध्यान मे रखकर सोचिए कि अधिकारी को उसका अधिकार दिलाने के लिए क्या किया जाना चाहिए।" यह थी श्री कृष्ण की वह वात जिसके आधार पर उस दिन
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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