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________________ - n . ............... दुर्योधन का कुचक्र १०७ __ तुम्हारे अहित को नहीं सोचेगे .. . . .. नही, नही पिता जी आप भूलते हैं। मैंने धर्म नीति का परीक्षण करने का निर्णय किया है इसका अभिप्राय यह नही कि हम राजनीति को ताक पर ही रख दें। हमे फूक २ कर इस पथ पर कदम रखना होगा। उस समय आप तो सिर्फ इतनी ही प्राज्ञा दीजिये कि जल्दी से जल्दी एक आवास गृह वारणावत मे बनवा हूँ और तब आप पांडवों को जैसे भी उचित समझे वैसे उसमें निवास करने के लिये बुलवा भेजिये । बस । - पुत्र, पाप का फल सदा बुरा होता है। राज्य के प्रलोभन में कोई ऐसा कार्य न कर बैठना जिससे तुम्हे नरकों के दुख भोगने पडें । और यह ससार भी तुम्हारे लिये नरक बन जाये। धृतराष्ट्र अभी तक दुर्योधन. की तरफ से सशकित थे। परन्तु उनमे उसे ललकारने की शक्ति नहीं थीं। . . पिता जी, विश्वास रखिये, ऐसी कोई बात मैं करने वाला नही हूं कि जिसमें आपको किसी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े। दुर्योधन ने आश्वासन देना प्रारम्भ किया और अपने कार्य मे पूर्ण सहायता का वचन ले कर खुशी २ यह मडली अपने महल आई और पूर्व निश्चयानुसार कार्य मे दत्तचित्त हो कर जुट गई। x + ) , xxx दुर्योधन ने अपने कुचक्र सभालन के लिए मुह मांगा धन प्रदान कर अपने पुरोहित पुरोचन को, जिसे कि पाडव भी श्रद्धा एव विश्वास की दृष्टि से देखते थे, अपना अभिन्न हृदय बना लिया था। उसी की देख रेख मे वारणावत मे लाख, प्रोम आदि तुरन्त अग्निग्राह्य पदार्थों के समिश्रण से एक महल का निर्माण कराना प्रारम्भ किया, और धृतराष्ट्र का सन्देश लिखवा कर सदल वल युधिष्ठिर के पास वन मे भेज दिया। जहा पर उसने येन केन प्रकारेण पाडवो को वारणावत मे निवास करने के लिये और अपने साथ चलने के लिए तैयार कर धूम धाम से प्रवेश कराने के लिए वारणावत में कार्य कर रहे राजकीय कर्मचारियों एव निवासियो को आगमन
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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