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- जैन महाभारत.
श्री कृष्ण ने गॉति पूर्वक कहा-"दुर्योधन आप जानते है मै आप दोनों का रिश्तेदार है। यदि आप मे युद्ध हुप्रा तो मसार कहेगा कि पाण्डव तथा कौरव यदि युद्ध के मतवाले हो गए थे -तो कृष्ण तो धर्म मार्ग को समझते थे, वे तो उन दानो मे शाति करा सकते थे। उन्होने उन दोनो को क्यो नही समझाया। इस लिये मै फिर से कहता है कि यदि आप प्राधा राज्य वापिस नही करना चाहते तो उन्हे पाँच गाव ही दे दो, वे पांच भाई उसी से अपनी गुजर कर लेगे।
पांच गांव की भी आप ने खूब कही। क्या उनका मुझ पर कोई ऋग है जो मैं अदा करता -फिरू ?"- दुर्योधन
बोला।
क्या यह मम्भव नहीं कि आप अपने राज्य के कोई से निकृष्ट पाँच गाव देकर सन्धि करल । -"श्री कृष्ण ने कहा।
याप अपने हाथ की निकृष्ट सी उ गली काट कर किमी की दे सकते हैं ! नही । मेरे राज्य का प्रत्येक ग्राम, चाहे वह निकृष्ट हा हो, मेरे लिए, उतना ही मूल्यवान है, जितनी कि मेरी राजधानी । और गज्य कभी भीख मागने मे नही मिला करता । गज्य भिक्षा में नहीं दिए जाया करते । यदि पाण्डवो में शक्ति है तो वे रणभूमि में लडकर गज्य ले मकने है ।" दुयोधन ने प्रावेश मे आकर कहा।
उस समय दुर्योधन की बाने मुनकर भीष्म पितामह, विदुर और धृतराष्ट्र निलमिला उठे। परन्तु कर्ण बहुत प्रसन्न हो रहा था. श्री कृष्ण बोले. 'राजन ! नुम शक्ति तथा मैन्य बल के मद में प्रकार के शिकार हो गए हो। पाच गाव देने पर भी यदि तुम्हें आपत्ति है तो फिर बनायो कि युद्ध को टालने के लिए पाण्डवी को कुछ देने के लिा भी रजामन्द हो सकते हो अथवा नही ?" . .. दुर्याधन प्रावेश में प्रापर बोला-"श्री कारण इस समय पार मेरे दस्वर में गजदूत के रूप में पाये है। मेरे दितेदार के रम में .नही . इस लिए मैं ग्राम से यह वान मष्टतया कहने पर विवश है कि पाण्डव पाच गाव की बात बग्ने है, पाप जन में जाकर कह दे