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जैन महाभारत
है कि सेनापति मुझे कुदृष्टि से देखते हैं। वे कामदेव के वशीभूत होकर धर्म को भूल जाते है . उनकी आखो मे सदा ही वासना अकित रहती है । वे काम' सन्तप्त हो मेरे सतीत्व का हरण करना चाहते हैं । अतएव इतनी गहन रात्रि मे मैं उनकेघर जाती घबराती है। मैं ने जब-के ग्रहा नौकरी की थी, आपको याद होगा कि आपने मेरे सतीत्व की रक्षा का वचन दिया था। अतएव आप मुझे वहा न भेजिए। वे काम से पीडित है, मुझे देखते ही अपमान कर बैठेगे।"
"तू तो काम से बचने के साथ साथ मेरे भाई पर भी दोषा. रोपण करने लगी २-रानी सुदेष्णा ने बल खाते हुए कहा-क्या तू अपने को इतनी रूपवती समझती है कि कोई उच्चपदासीन राज. कुमार अपनी चन्द्र मुखी रानियो को छोड कर तुझ दासी पर कुदृष्टि डालेगा। नही यह सब तेरी बहानेबाजी है"
"नही, महारानी ! आप ऐसा न कहे मै आप के आदेश का पालन करने के लिए प्राण तक दे सकती है। पर अपने सतीत्व की रक्षा करना भी तो मेग धर्म है। मैं य ही किसी पर दोषारोपण नहीं करती।"-सौरन्ध्री ने कहा।।
- "तो फिर तुझे ही जाना होगा। मैं कहती हूं कि मर आदेश का पालन करते हुए तझे कोई आँख उठा कर भी नहीं देख सकता तू कलश लेकर जा और रस लेकर तुरन्त चली ग्रा। '
रानी की आज्ञा का पालन करना आवश्यक हो गया। सौरन्त्री रोती और डरती हुई कलश लेकर कीचक के घर की ओर चली। मन ही मन वह जिनेन्द्र व शील सहायक देव का स्मरण करती जाती थी। भयभीत हरिणी की भाँति उसने कीचक के रनवास भवन मे पदार्पण किया।
उसे देखने ही कीचक आनन्द विभोर हो उठा। हपतिरक से उछल कर खड़ा हो गया, वोला-सुन्दरी ! तुम्हारा हादिक स्वागत है। तुम ने मेरे घर पधार कर मेरे लिए जो उल्लास का प्रादुर्भाव किया है, उसके लिए शत शत धन्यवाद ! आज की रात्रि