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जैन महाभारत
द्रोण उसका रास्ता रोक कर वोले- भीम सेन ! मैं तुम्हारा शत्र है। मुझे परास्त किए बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकोगे । मेरी अनुमति पाकर हो तुम्हारा भाई अर्जुन व्यूह मे प्रवेश कर सका है। पर तुम्हे जाने की मैं पाता नही दू गा"
__आचार्य का विचार था कि अर्जुन की ही भाति भीम सेन भी उनके प्रति आदर प्रगट करेगा । परन्तु भीम सेन तो उल्टा क्रुद्ध हो गया . उसने गरज कर कहा- "ब्राह्मण श्रेष्ट । अर्जुन व्यूह मे घुस गया है तो आप से आज्ञा लेकर नही आपकी कृपा वश ; नही, वरन अपने बल के बूते पर उसने व्यूह को तोड कर प्रवेश किया है । परन्तु आप याद रखिये कि अर्जुन ने आप पर दया की होगी, किन्तु
आप मुझ से ऐसी आशा न रखिये। मैं आप का शत्रु हू और मेरे सामने जो कोई आयेगा, चाहे वह मेरा गुरु ही क्यो न हो, मेरे हाथो अपनी धृष्टता का फल चखे बिना न रहेगा । भीम किसी की दया का मोहताज नही है, वह वल के द्वारा अपना रास्ता बनाना जानता है ।"
. द्रोण तो उसके स्वभाव से परिचित थे ही, उन्होने क्रुद्ध भीम को शांत करने के लिए कहा- 'अरे वृकोदर ! पहले गुरु-ऋण तो , 'चुकाता जा । जाता कहाँ है ?"
. भीम और भी ऋद्ध हो गया और खिसिया कर वोला-हा। ठीक है, आपका ऋण भी चुकाता चल । पर याद रहे कि मैं आपको पूरी तरह छका दूंगा।" '. "मूर्ख । यह मत भल कि मुझ से ही तूने वह विद्या प्राप्त
की है, जिसके बल पर तू अकड रहा है ।"-कुपित होकर द्राण वोले ब्राह्मण श्रेष्ठ ! वह दिन लद्द गए, जब आप हमार गुरु थे हमारे पिता तुल्य थे। तब हम आपका शीश झुकाते थे आप को पूजते थे। पर आज तो आप छूटते हा स्वय अपने को मेरा शत्रु कह चके है । फिर भी आप चाहते हैं तो आप को शत्रु गुरु मानकर आप का गुरु ऋण चुकाए ही देता है।"
"यह कहता हुया भीम सेन भूखे भेडिये की 'भाँति अपने रथ । से उतरा और दौड़कर उसने द्वोण का रथ उठाकर फेंक दिया । द्राण बड़ी कठिनाई से कूद कर अपने प्राण बचा सके। वे दौड़ कर दूसर