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जैन महाभारत
वर्षा आरम्भ कर दी । परन्तु अर्जुन ने पहले अपने वाणो से सुप्रतीक के कवच को तोड डाला, इस से वाणो का प्रभाव हाथी के शरीर पर होने लगा । गाण्डीव से छूटे वाणों की मार से सुप्रतीक नाचने सा लगा । भगदत्त को वडा क्रोध आया उसने श्री कृष्ण पर एक शक्ति फेंकी परन्तु धनुर्धारी अर्जुन ने शक्ति को अपने वाणो से तोड डाला। तब भगदत्त ने एक तोमर ग्रर्जुन पर चलाया! जो जाकर अर्जुन के मुकुट पर लगा। उसने ग्रपना मुकुट तो सम्भाल लिया, पर कुपित होकर गर्जना की- "भगदत्त लो, अब इस संसार को अन्तिम वार अच्छी प्रकार देख लो ।”
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कहते कहते अपना गाण्डीव तान लिया । क्रुद्ध भगदत्त के बाल पक गए थे, चेहरे पर झुरिया पडी हुई थी, भौहो का चमडा आखो की ओर लटक गया था, उसे देख कर सिंह का रुमण हो आता था, फिर भी वृद्ध सिंह भगदत्त अपने शील स्वभाव तथा प्रताप के लिए बड़ा प्रसिद्ध था, लोग उसे इन्द्र का मित्र कहा करते थे, अर्जुन की गर्जना सुन कर भी उसने हिम्मत न हारी, वाण चलाता ही रहा । पर गाण्डीव से छूटे बाणो के कारण उसका धनुष टूट गया, तरकश टूट कर दूर जा गिरा। अर्जुन ने भगदत्त के मर्म स्थानो को छेद डाला ।
अस्त्र शस्त्र विद्या सिखाते समय उन दिनों यह भी सिखाया जाता था कि कवच धारी के शरीर को वीघने के लिए कहाँ प्रहार करना चाहिए। अर्जुन अपने गुरु द्रोणाचार्य से यह सभी कुछ सीख चुका था, इस लिए उस ने वही वाण जहां वाणो से शरीर विध जाता था । उस ने भगदत्त के सभी अस्त्रो को भी काट डाला । भगदत्त का शरीर लहुलुहान हो गया । अन्त मे उस ने हाथी का कुश ही अभिमन्त्रित कर के अर्जुन पर इस प्रकार मारा कि यदि उस समय श्री कृष्ण अपनी कुशलता से रथ को दूसरी ओर न मोड़ देते नो अर्जुन का सिर कट गया होता। हां, अर्जुन तो उम ग्रस्त्र से बच गया, परन्तु वह श्रभिमन्त्रित ग्रकुश जो प्राणहारी ग्रस्त्र वन गया था, श्री कृष्ण की छाती पर था कर लगा। परन्तु श्री कृष्ण का यह ग्रस्त्र कुछ न बिगाड़ सका। यह सब उन की शुभ प्रकृति का ही प्रभाव समझिए । कुछ लोग इस बात को इस प्रकार मानते है कि वैष्णवस्त्र ने अभिमन्त्रित होने के कारण श्री कृष्ण
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