________________
१८२
जैन महाभारत
को आशा ही नही कर सकती जिसे स्वय मैं ही अधर्म समझती है। वह तो धर्म के सम्बंध में पारंगत है। मैं उस से ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं कर सकती जिसके स्वीकार होने की किचित मात्र भी पागा नहीं ."
"ऐसा लगता है कि तुम पर उसकी बातों का जादू चम गया है। वरना तुम तो उसकी मालकिन हो, भला तुम्हारा वह क्या विगाइ सकती है ?" :- ... हा बिगाड तो नहीं सकती, पर मैं. अधर्म से अपने को सम्मिलित नही करना चाहती है.... .. : -- ... ,
, तो फिर यह क्यो नही कहती कि मैं, तुम्हारे काम मे कोई सहायता ही नहीं करना चाहती।" . . - - - -
"नही, भेया नहीं, ऐसो कोई बात नहीं है । पर तुम तो पत्थर पर जोख लगवाना चाहते हो।" - .:: --- : . ""
- "यही तो बात है, तुम जिसे पत्थर समझती हो, वास्तव मे उसका रूप भले ही पाषाण समान हो, है वह अन्दर से पाला ही, बिल्कुल मोम समान । तुम एक बार प्रयत्न तो करके देखो।":.
-
4
-
--
रानी सुदेष्णा कीचक के वारम्बार आग्रह के कारण विवश हो गई उसी काम के लिए जिसे करना वह स्वय पाप समझती था। पर वह पाप करने से घबराती भी थी । उसने कहा - "भया . तम मुझे विवश कर रहे हो, अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर ग्रह हो ।-अच्छा 1 'मै इतना कर सकती है कि मैं सोरन्ध्री का तम्हारे पास एकान्त में अकेली भेज द। और तम वहा उस समन वुझा कर प्रसन्न कर लेना। बस इम से अधिक की प्राशो मुझे र मत करो।
" कीचक को यह वान म
-
-
- *