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कीचक व
है, जो उस पर विजय पाता है, वास्तव मे वही वीर है । तुम स्वय चीर हो, अपने को वीर कहलाना चाहते हो, अपने शौर्य पर तुम्हे गर्व है, फिर तुम काम देव के वशीभूत होकर एक दासी के सामने प्रेम याचना करो, या वासना के लिए अपने शौर्य को कलकित करो; तुम्ही सोचो यह तुम्हारे लिए लज्जा की बात नही तो और क्या ?"
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' वहन ! मै स्वयं अपनी कमज़ोरी पर लज्जित हूं। परन्तु ब तो विना सोरन्ध्री को प्राप्त किए मेरा जीवन दुर्लभ है। जो मी हो । अब तो कोई ऐसा उपाय करो जिस से मौरन्ध्री मुझे स्वीकार करे, वरना मैं उसके मोह में प्राण दे दूंगा ।"
"भैया ! सौरन्ध्री जितनी रूपवती है, उतनी ही उच्च विचारो की सती भी। वह किसी बलवान गंध की पत्नी है । पर - स्त्री पर कुदृष्टि डालने का दोष कर रहे हो । जानते हो यह कितना बडा पाप है । पता नही इसके कारण तुम्हे कितने नारकीय दुख भोगने पडे । यदि तुम इस लिए भी तयार हो जानो तो भी सौरन्ध्री पतिव्रत धर्म का उल्लघन करने को तैयार हो जायेगी, इसकी आशा में तो कर नही सकती । वह तो साक्षात सती प्रतीत होती है । इसी कारण बताओ में कर ही क्या सकती हू ?""" सुदेष्णा ने विवशता प्रकट करते हुए कहा ।
कीचक वोला - "सुदेणे ! लोग जितने उच्च दीखते है वास्तव में होते उतने ऊचे नही । स्त्रियों के स्वभाव मे मै भलि भाति परिचित है। प्रत्येक जीव सुख चाहता है। सुख का मोह मनुष्य से दुष्कृत्य से दुष्कृत्य करा डालता है । वैभव का आकर्षण
ही भयानक होता है । तुम यदि उसे मेरे द्वारा उप्लब्ध मुख का मोह दर्गाओ तो विश्वास रखो कि वह श्रवश्य पिघल जायेगी । तुन प्रयत्न तो करो।"
'उसके ललाट पर चमकना तेज कदाचित तुमने नही परया मुदेष्णा ने कीचक को मौरी की उच्चता माने हेतु पहा- उन के तेज को शनि के सामने में पिसो ऐसी बन
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