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जैन महाभारत
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भी हूं. तुम्हारा भाई हूं। तुम्हारे ही सहारे मैं अपने देश को छो कर यहां चला आया । मैं सदा ही तुम्हारे राज्य, तुम्हारे पति के सिंहासन के लिए अपने प्राण तक देने को तैयार रहा । तुम्हारे शत्रुत्रों को अपना शत्रु समझा । जान बूझ कर मृत्यु से टक्कर लेने में भी नही हिचका । क्यों ? क्या केवल तुम्हारे लिए ही, नहीं । तुम्हारे सुहाग और तुम्हारे पति के सिंहासन के लिए ही क्या मैंने रण भूमि में शत्रुओं को नही ललकारा। आज मेरा काम पडा है तो क्या मुझे तुम्हारे उत्तर से लज्जित होना पड़ेगा ?"
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रानी सुदेष्णा को यह समझते देर न लगी कि कीचक काम देव के पूरी तरह से अधिकार मे आगया है, वासना ने उसे उस स्थान पर लेजा पटखा है जहाँ से वापिस लौटाना असम्भव नहीं तो अति कठिन कार्य अवश्य है फिर भी उस ने कहा- "भैया | सौरन्ध्री मेरी दासी है, तो तुम्हारी भी दासी ही है। तुम सेना पति हो । इस राज्य के सब से ऊचे व सम्मानित आसने परे श्रासीन हो। तुम अपनी दासी के मोह जाल मे फसो यह तो तुम्हें शोभा नही देता । तुम्हारे घर मे एक से एक सुन्दर रानी है ।"
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"सुदेष्णे । प्रेम और आसक्ति नीच और ऊच के झमटो से ऊपर की बाते हैं । रूप सौंदर्य चाहे जहा हो उसके आकर्षण में कोई कमी कदापि नही होती । यह वह जादू है जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। तभी तो लोग कहते है कि प्रेम अच्छा होता है । मेरे मन मे सौरन्ध्री की छवि इतनी चुभ गई है, कि निकाले नही बनती । इस सम्बन्ध मे कोई भी सीख व्यर्थ है ।"
- कीचक बोला ।
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रानी सुदेष्णा ने गम्भीरता पूर्वक उसे समझाने की चेष्टा करते हुए कहा - "मनुष्य को अपनी प्रतिष्ठा, मान और लोक लज्जा के लिए कितनी हो प्रिय वस्तुओं को तिलाञ्जलि देनी पड़ती है। धर्म त्याग का ही रूप है । वीर वह नही है जिम के शरीर में अतुल्य शक्ति है, अथवा जो अपने शत्रुओ पर विजय पाता है, वरन वह है जो दुष्ट इच्छाश्रो टोपो कमजोरियो और अपनी इन्द्रियो पर विजय पाता है। काम मनुष्यत्व का सत्र मे बड़ा व भयंकर त्रु